धौलपुर. भारतीय सर्जनए महर्षि सुश्रुत जिन्हें आधुनिक सर्जरी के जनक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने लगभग 2500 साल पहले सुश्रुत संहिता के प्राचीन आयुर्वेद साहित्य में अनेक चिकित्सा कर्मो एवं अनुशस्त्रों का प्रयोग बताया है जिनमें क्षार कर्म, क्षार सूत्र, जलोका (लीच) कर्म, रक्तमोक्षण चिकित्सा के साथ ही अग्निकर्म चिकित्सा का वर्णन किया है। इसमें बताया है कि लोह, ताम्र, रजत, वंग, कांस्य या मिश्रित धातु से बनी अग्निकर्म शलाका से शरीर के दर्द वाले हिस्से पर विशेष उर्जा (गर्मी) देकर राहत दिलाने की सदियों पुरानी तकनीक ही अग्निकर्म है।
यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अग्नि की मदद से जो चिकित्सा कर्म किया जाता है उसे अग्निकर्म कहते हैं। आधुनिक विज्ञान में इसकी तुलना थर्मल कॉटरी से की है। अग्निकर्म शरीर के विभिन्न मस्कुलोस्केलेटल और न्यूरोमस्कुलर विकारों में होने वाले दर्द को दूर करने के लिए उपयोगी है। इससे उपचार करने पर मरीज को कोई कष्ट या कॉम्प्लिकेशन महसूस नहीं होता।
अग्निकर्म चिकित्सा की विधि अग्निकर्म प्रक्रिया में एक विशेष अग्निकर्म शलाका या सामग्री (जिनमें ठोस) द्रव, अर्धठोस, जानवरों से उत्पन्न एवं हर्बल प्रिपरेशन या मैटेलिक प्रोब उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इसके रोग के उपचार में सामान्यत एक बार में 5 से 7 मिनट लगते हैं। अग्नि कर्म करने से पहले चिकित्सक के रोग के अनुसार रोगी की जांच कराई जाती हैं। रोगी को भली भांति अग्निकर्म विधि की जानकारी दी जाती है। रोगी की सहमति प्राप्त कर अग्निकर्म किया जाता है। अग्निकर्म चिकित्सा का प्रत्यक्ष रूप से प्रयोग करने से पहले पीडि़त व्यक्ति को पतला, पौष्टिक, चिकनाई युक्त आहार देते हंै। इसके बाद सबसे पहले रोगी के निदान और रोग की गंभीरता के आधार पर प्रभावित शरीर क्षेत्र पर विशिष्ट बिंदुओं की पहचान की जाती है। फिर, अग्निकर्म शलाका या चयनित दहन उपकरण को गर्म कर प्रभावित क्षेत्र पर सटीक रूप से लगाया जाता है और इसके बाद तत्काल राहत एवं शीतलता के लिए एलॉयविरा (ग्वारपाठा) के गुदे का उपयोग किया जाता है। रोगी को उसके प्रभावित स्थान पर मुलेठी चूर्ण लगाकर घर भेज दिया जाता है। उपचार के बाद रोगी अपनी दैनिक गतिविधियों को जारी रख सकते हैं।
अग्निकर्म चिकित्सा निम्न रोगों में लाभदायक – त्वचा, मांस, शिरा, स्नायु, संधि, अस्थि इनमें जहां तीव्र वेदना या रूजा अर्थात दर्द हो उसमें अग्निकर्म से अधिक लाभ मिलता है। – यह शरीर की विभिन्न मांसपेशियों एवं उनके विकारों को दूर करने के लिए उपयोगी है। वात से संबंधित परेशानियां जिनमें से सायटिका, फ्रोजन सोल्जर, कोहनी का दर्द, कटिशूल, संधि अस्थिगत वात, ऐड़ी में दर्द एप्लांटर फैसिटिस, त्वचा की एक्स्ट्रा ग्रोथ में अग्निकर्म किया जाता है।
– वात कफ दोष प्रधान आधिक्य विकारों में अग्नि के उष्ण, तीष्ण, रूक्ष गुण के कारण रोगों का शमन होता है। – त्वचागत रोग, तिलकालक (काला तिल), चर्मकील, वाट्र्स, कदर या ठेठ, पैरों की कील, चिप्प, स्वेदज ग्रंथि, मशक (मस्सा), शरीर पर मस्सा, एक्स्ट्रा ग्रोथ, अर्श, भगंदर की शल्य क्रिया हेतु अग्निकर्म उपयोगी है।
– अधिक रक्तस्राव होने पर भी अग्निकर्म का प्रयोग किया जाता है। – आयुर्वेद की सुश्रुत संहिता में अग्निकर्म का विस्तृत वर्णन है। आजकल कुछ लोगो ने अग्निकर्म चिकित्सा को दाब देना, चटके लगाना, धमना देना आदि नामों से बदनाम किया है। बल्कि अग्निकर्म चिकित्सा का प्रयोग रोगों के निवारक,, उपचारात्मक, आपातकालीन के रूप में प्रयोग की जाती है। आधुनिक विज्ञान में सर्जरी की ओटी में अधिकांश शल्यकर्म (सर्जरी) अग्निकर्म उपकरण (कॉटरी) की सहायता से ही किए जाते हैं। जिनमे उतकों (टिशू) के छेदन (एक्सीजन), भेदन (इंसीजन) रक्त को रोकने के लिए (ब्लड कॉगुलेशन) के रूप में इसका प्रयोग किया जा रहा है।
– डॉ.विनोद गर्ग, वरिष्ठ आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी