माधवदास जगन्नाथ पुरी में अकेले रहते थे और भजन किया करते थे। इस बीच अपना सारा काम भी खुद ही करते थे। कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ उन्हें प्रतिदिन दर्शन देते थे और उन्हें अपना मित्र मानते थे। एक बार माधवदास को अतिसार (उलटी-दस्त) हो गया। इस रोग से माधवदास इतने दुर्बल हो गए कि चलना-फिरना मुश्किल हो गया पर वे काम अपना खुद ही करते थे।
माधवदास के परिचितों ने उनकी सेवा करने की सोची, पर उन्होंने इंकार कर दिया। माधवदासजी ने कहा कि नहीं, मेरा ध्यान रखने वाले तो प्रभु श्रीजगन्नाथजी हैं। वे कर लेंगे मेरी देखभाल, वही मेरी रक्षा करेंगे। उन्होंने प्रभु के इंतजार में किसी की मदद नहीं ली तो उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। एक वक्त ऐसा आया कि माधवदास उठने-बैठने में भी असमर्थ हो गए, तब भगवान श्रीजगन्नाथ स्वयं सेवक बनकर माधवदास के घर पहुंचे। इस वक्त माधवदासजी बेसुध थे। उनका रोग इतना बढ़ गया था कि वे मल-मूत्र त्याग देते थे, उनको पता भी नहीं चलता था। इसके कारण उनके वस्त्र भी गंदे हो जाते थे।
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भगवान जगन्नाथ ने 15 दिन तक उनकी खूब सेवा की, उनके कपड़े धोए और उन्हें नहलाया। जब माधवदास को होश आया, तब उन्होंने पहचान लिया कि यह मेरे प्रभु ही हैं। माधवदासजी ने पूछा, प्रभु आप तो त्रिलोक के स्वामी हैं, आप मेरी सेवा कर रहे हैं। आप चाहते तो मेरा रोग क्षण में ही दूर कर सकते थे परंतु आपने ऐसा न करके मेरी सेवा क्यों की?
इस पर प्रभु श्रीजगन्नाथजी ने कहा कि, देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता। इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की है। दूसरी बात यह कि जिसका जैसा प्रारब्ध होता है उसे वह भोगना ही पड़ता है। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें प्रारब्ध का फल भोगना न पड़े और फिर से जन्म लेना पड़े। अगर उसको इस जन्म में भोगेगे-काटोगे नहीं तो उसको भोगने के लिए तुम्हें अगला जन्म लेना पड़ेगा।
इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की, लेकिन तुम फिर भी कह रहे हो तो अभी तुम्हारे हिस्से के 15 दिन का प्रारब्ध का रोग और बचा है तो अब 15 दिन का रोग मैं ले लेता हूं और अब तुम रोग मुक्त हो। इसके बाद प्रभु जगन्नाथ खुद 15 दिन के लिए बीमार पड़ गए।
इस घटना की याद में तभी से रथयात्रा के पहले प्रभु जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं, और 15 दिन तक प्रभु को एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। इसे ओसर घर कहते हैं। इस 15 दिनों की अवधि में महाप्रभु को मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों के अलावा कोई और नहीं देख सकता।
इस दौरान मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ की प्रतिमा स्थापित की जाती है और उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 15 दिन बाद भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। इसे नव यौवन नैत्र उत्सव भी कहते हैं। इसके बाद द्वितीया के दिन महाप्रभु श्रीकृष्ण, बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ बाहर राजमार्ग पर आते हैं और रथ पर विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं।