एक दिन वृंदावन में ही एक जगह उनके लिए भागवत कथा करने का न्योता आया, पहले तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन लोगों के जोर देने पर वे कथा कहने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने सोचा कि भगवान की सेवा की तैयारी करके वे रोजाना कथा करके वापस लौट आएंगे, जिससे भगवान का सेवा नियम भी नहीं छूटेगा।
संत कुंभनदास ने जाते समय अपने बेटे से कहा कि वे भोग तैयार कर चुके हैं, तुम्हें बस समय पर ठाकुर जी को भोग लगा देना है। उनका बेटा रघनंदन छोटा था, उसे समझ में आया कि भोग लगाने पर भगवान खुद आकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इधर, कुंभनदास ने अपने बेटे रघुनंदन को समझाया और वहां से प्रस्थान कर गए। इसके बाद समय पर रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ और भोग लगाओ, उसके बाल मन में यह छवि थी कि वे आकर अपने हाथों से भोजन करेंगे, जैसे हम सभी करते हैं। उसने बार-बार ठाकुर जी से आग्रह किया लेकिन भोजन तो वैसे का वैसे ही रखा रहा।
अब रघुनंदन उदास हो गया और रोते हुए पुकारा कि ठाकुर जी आओ और भोग लगाओ, जिसके बाद ठाकुर जी ने एक बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए। इससे रघुनंदन बहुत प्रसन्न हुआ। रात को जब कुंभनदास जी ने लौट कर पूछा- बेटा, तुमने ठाकुर जी को भोग लगाया था? रघुनंदन ने कहा- हां, उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा कि ठाकुर जी ने सारा भोजन खा लिया, उन्होंने सोचा कि बच्चे को भूख लगी होगी तो सारा भोजन उसने ही खा लिया होगा।
अब तो ये रोज का नियम हो गया कि कुंभनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुर जी को भोग लगाते और जब वे वापस लौटकर प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि ठाकुर जी ने सारा भोजन खा लिया। कुंभनदास जी को अब लगने लगा कि बेटा झूठ बोलने लगा है।
इसका पता लगाने के लिए संत कुंभनदास ने एक दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिए और छिप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है, रघुनंदन ने रोज की तरह ही ठाकुर जी को पुकारा तो ठाकुर जी बालक के रूप में प्रकट हो गए और लड्डू खाने लगे। यह देखकर कुंभनदास जी दौड़ते हुए आए और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे। उस समय ठाकुर जी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ वाला लड्डू मुख में जाने को ही था कि वे जड़ हो गए, उसके बाद से ही उनकी इसी रूप में पूजा की जाती है और ये लड्डू गोपाल कहलाए जाने लगे।