अपने पिता के आदेश पर दक्ष ने महादेवी की कठोर तपस्या की, जिसके बाद आदिशक्ति प्रकट हुईं और मनोवांछित वरदान मांगने के लिए कहा। दक्ष ने कहा, “हे मां ! मेरी यह मनोकामना है कि आप मेरी पुत्री के रूप में जन्म धारण करें।” महादेवी ने दक्ष को वरदान प्रदान करते हुए कहा, “जिस समय मैं भगवान शिव से विवाह करने के लिए अवतरित होंगी, तो तुम्हारी पत्नी प्रसूति के गर्भ से जन्म धारण करूंगी।” लेकिन देवी ने यह भी स्मरण कराते हुए कहा कि, यदि दक्ष के पुण्यों का क्षय हो गया अथवा उन्होंने किसी भी प्रकार से महादेवी की उपेक्षा अथवा अपमान किया तो, तो वह तत्क्षण उनका परित्याग कर देंगी।
सती और शिव के विवाह के कुछ समय बाद दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ का आयोजन किया जिसमें भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा गया। जिस समय भगवान शिव ने देखा कि सती उनके पिता की अस्वीकृति होते हुए भी उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए हठ कर रहीं हैं, तो शिव जी क्रोधित हो उठे और गर्जना करते हुए बोले, “मुझे ज्ञात है कि, तुम मेरे आदेशों के बंधन में बंधी नहीं हो, अतः जो मन हो करो, मेरी सहमति की प्रतीक्षा क्यों कर रही हो?
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भगवान शिव के ऐसी कठोर वाणी सुनकर देवी क्रोधित हो गईं और मन ही मन यह विचार करने लगीं कि, “भगवान शिव मुझे अपनी धर्मपत्नी के रूप में प्राप्त करने के बाद मेरे वास्तविक परम शक्ति स्वरूप को भूल गए हैं। अतः मैं भगवान शिव और अपने गौरवान्वित पिता का त्याग कर कुछ समय के लिए अपने स्वरूप और अपनी लीला में स्थित रहूंगी।”
भगवान शिव के ऐसी कठोर वाणी सुनकर देवी क्रोधित हो गईं और मन ही मन यह विचार करने लगीं कि, “भगवान शिव मुझे अपनी धर्मपत्नी के रूप में प्राप्त करने के बाद मेरे वास्तविक परम शक्ति स्वरूप को भूल गए हैं। अतः मैं भगवान शिव और अपने गौरवान्वित पिता का त्याग कर कुछ समय के लिए अपने स्वरूप और अपनी लीला में स्थित रहूंगी।”
यह तय कर देवी ने महाकाली का भयंकर रूप धारण किया, ये श्याम वर्ण की देवी थीं, जो दिगम्बरी (दिशायें ही जिनका वस्त्र हों), लोलजिह्वा (जिनकी जिह्वा बाहर की ओर लटकी तथा दांतों के मध्य दबी हुई हो), अस्त-व्यस्त केशों वाली तथा नरमुण्ड माला धारण किए हुए थीं।
इस भयंयर रूप में देवी का दर्शन कर भगवान शिव चिंतित हो गए, लेकिन वो उस स्थान से जाने का प्रयास करने लगे। अपने प्रिय भगवान शिव को नाराज होकर जाता देखकर, देवी मां ने कृपा करते हुए भगवान शिव को किसी भी दिशा में भागने से रोकने के लिए और सभी दस दिशाओं को अवरुद्ध करने के लिए दस भिन्न-भिन्न रूप धारण किए। देवी भगवती के प्रत्येक रूप ने एक-एक दिशा को अवरुद्ध कर दिया।
भगवान शिव जिस भी दिशा से जाने का प्रयास करते, उसी दिशा में देवी भयंकर रूप में उपस्थित होती थीं। अन्ततः निकलने का कोई मार्ग न मिलने पर भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद कर लिए, बाद में जिस समय उन्होंने नेत्रों को खोला देवी महाकाली अपने विकराल स्वरूप में उनके समक्ष ही खड़ी हुईं थीं। भगवान शिव ने प्रश्न किया, “तुम श्यामा (कृष्ण वर्ण वाली) कौन हो? मेरी प्रिय सती कहां है?”
देवी ने हंसते हुए उत्तर दिया, “क्या आप मुझे पहचान नहीं सकते? मैं आपकी प्रिय सती ही हूं। मैं सृष्टिसंहारकारिणी सूक्ष्म प्रकृति हूं। आपकी अर्धांगिनी होने के कारण मैं गौर वर्ण, अर्थात गौरी हो गई हूं। जिन दस देवियों का आप अपने चारों ओर दर्शन कर रहे हैं, वे भी मेरे ही विभिन्न रूप हैं। अतः हे महामति शम्भु, आपको परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।”
देवी सती ने चिंतित भगवान शिव से कहा, “आपके समक्ष जो देवी हैं, वह भीमनायन महाकाली हैं, आकाश अथवा अंतरिक्ष दिशा में तारा हैं, दाहिनी ओर छिन्नमस्ता हैं, आपके बायीं ओर भुवनेश्वरी हैं, आपके पीछे बगलामुखी हैं , दक्षिण-पूर्व कोने में (अग्नि कोण) धूमावती है, दक्षिण-पश्चिम कोने में (नैऋत्य कोण) में कमला है, उत्तर-पश्चिम कोने में (वायुकोण) में मातंगी हैं, उत्तर-पूर्व कोने में (ईशान कोण) है वहां षोडशी (त्रिपुर सुन्दरी) हैं और मैं स्वयं आपके भीतर ही भैरवी के रूप में विद्यमान हूं। अतः यदि आपकी इच्छा हो तो मैं उस अहंकारी दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर उसे पाठ पढ़ा सकती हूं।”
इस प्रकार दस महाविद्याओं की उत्पत्ति हुई।