एक समय की बात है, घने जंगल के पास एक गांव में एक दयालु और धार्मिक महिला रहती थी, उसके सात बेटे थे। कार्तिक का महीना था और दिवाली पर्व आने वाला था। इसलिए महिला ने घर में लीपने-पोतने और साज-सज्जा का काम करने का निर्णय लिया। अपने घर को लीपने के लिए वह मिट्टी लेने वन में पहुंची। वन में उस महिला की दृष्टि मिट्टी के एक टीले पर पड़ी। वह कुदाल लेकर उस टीले से मिट्टी निकालने लगी। वह कुदाल की सहायता से मिट्टी निकाल ही रही थी, कि अचानक उसकी नजर कुदाल पर लगे खून पर गई।
इस पर महिला ने सावधानी से मिट्टी हटाया और देखा तो वहां सेही (कांटेदार मूषक) के कुछ बच्चे खन से लथपथ पड़े थे। कुछ ही क्षणों में वह सभी की मौत हो गी। यह देखकर महिला भयभीत हो गई और मिट्टी लिए बिना ही घर लौट आई। महिला सेही के उन निर्दोष बच्चों के साथ हुई दुर्घटना को लेकर अत्यंत दुखी थी और मन ही मन स्वयं को उसका दोषी समझकर अशांत थी।
इधर, कुछ समय बाद सेही अपनी बाम्बी (मांद) पर आई तो अपने शिशुओं को मृत पाकर विलाप करने (रोने) लगी और गुस्से में उसने श्राप दे दिया कि, “जिसने भी मेरे निर्दोष शिशुओं की हत्या की है, उसे भी मेरे समान घोर कष्ट और संतान का वियोग भोगना पड़े”।
सेही के श्राप के प्रभाव से, इस घटना के एक वर्ष की समयावधि में उस स्त्री के सभी सात बेटे कहीं चले गए और कभी लौट कर नहीं आए। उन सात बेटों के विषय में किसी भी प्रकार की कोई सूचना प्राप्त ना होने पर, अन्ततः ग्रामीणों ने महिला के उन सभी पुत्रों को मृत मान लिया।
ग्रामीणों का अनुमान था कि वन के हिंसक पशुओं ने उस स्त्री के बेटों को मार दिया होगा या किसी लुटेरों के समूह ने धन के लोभ में उनकी हत्या कर दी होगी। इससे महिला बहुत दुखी थी, उसने मन ही मन यह विचार कर किया कि, उसके द्वारा सेही के शावकों की हत्या के कारण ही, उसके जीवन में यह घोर संकट आया है।
एक समय ऐसा आया कि उन सात पुत्रों की माता भी अपने पुत्रों की लौटने की प्रतीक्षा करते-करते थक गई और आशा की कोई किरण ना दिखाई देने के कारण उसने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का विचार किया। वह नदी की ओर जा ही रही थी कि, मार्ग में उसकी भेंट गांव की ही एक अन्य वृद्ध महिला से हो गई। वृद्धा ने महिला से इस प्रकार रोने का कारण पूछा, तो महिला ने उसको अपनी पीड़ा बताई। उसने संपूर्ण घटना का विस्तार से वर्णन किया और भूलवश सेही के शावकों की हत्या के पाप के विषय में भी वृद्धा को बताया।
इस पर वृद्धा ने उस महिला को सुझाव दिया कि, अपने पाप के प्रायश्चित के रूप में, उसे दीवार पर सेही का चित्र बनाकर, देवी अहोई भगवती की पूजा करनी चाहिए। वृद्धा ने कहा, “पुत्री! यदि तू पूर्ण विधि-विधान से देवी का व्रत और पूजन करेगी, गाय की सेवा करेगी और स्वप्न में भी किसी का अहित नहीं सोचेगी, तो देवी मां की कृपा से तेरी संतान तुझे अवश्य ही मिल जाएगी।” देवी अहोई, देवी पार्वती का ही अवतार स्वरूप हैं। देवी अहोई को समस्त जीवित प्राणियों की संतानों की रक्षक माना जाता है, इसीलिए वृद्धा ने उस महिला को देवी अहोई के निमित्त व्रत रखने और पूजा करने का सुझाव दिया।
महिला ने अष्टमी के दिन देवी अहोई की पूजा करने का निर्णय किया। जब अष्टमी का दिन आया, तो महिला ने सेही के मुख का चित्र बनाया और व्रत का पालन करते हुए अहोई माता की पूजा अर्चना की। महिला ने अपने द्वारा हुए पाप के लिए शुद्ध हृदय से पश्चाताप किया। देवी अहोई उस स्त्री की भक्ति और निर्मलता से प्रसन्न होकर उसके समक्ष प्रकट हो गईं और महिला को पुत्रों की दीर्घायु का वरदान दिया।
शीघ्र ही उसके सभी सात पुत्र सकुशल जीवित घर लौट आए। उस दिन से प्रति वर्ष कार्तिक कृष्ण अष्टमी के दिन देवी अहोई भगवती की पूजा करने का प्रचलन हो गया। इस दिन माताएं अपनी संतानों की प्रसन्नता के लिए प्रार्थना और उपवास करती हैं और अहोई माता का आशीष ग्रहण करती हैं।