1973 में हुआ गठन, 1977 में पहला चुनाव
1957 से 1977 तक हाटपीपल्या बागली विधानसभा में आता था। तब भाजपा के वरिष्ठ नेता स्वर्गीय कैलाश जोशी बागली से विधायक थे। इसके बाद 1973 में हाटपीपल्या विधानसभा का गठन तो हुआ लेकिन पहला चुनाव 1977 में हुआ। 1977 के चुनाव में जेएनपी (जनता पार्टी) के तेज सिंह करणङ्क्षसह सैंधव यहां से चुनाव जीते। उन्होंने कांग्रेस के देवी सिंह यादव को चुनाव हराया। 1980 के विधानसभा में तेज सिंह सैंधव को भाजपा की ओर से मैदान में उतारा गया। इस चुनाव में उन्होंने इंदौर राजपरिवार के जगदीपेंद्र सिंह होलकर को हराया।
1985 में दोस्त से हुआ सैंधव का मुकाबला
1985 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने फिर सैंधव को मौका दिया। इस चुनाव में उनके सामने कांग्रेस के राजेंद्र सिंह बघेल थे। चुनाव टक्कर का रहा और राजेंद्र सिंह बघेल ने जीत दर्ज की। बघेल और सैंधव दोनों कॉलेज के जमाने के मित्र थे। दोनों ने लगातार चार बार एक-दूसरे के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा। 1985 में कांग्रेस के बघेल के जीतने के बाद 1990 के चुनाव में बीजेपी के सैंधव फिर विधायक बने। इसके बाद 1993 में हुए चुनाव में कांग्रेस के बघेल ने बीजेपी के सैंधव को हरा दिया। 1998 के विधानसभा चुनाव में फिर बाजी पलटी और बीजेपी के सैंधव ने कांग्रेस के बघेल को मात दे दी।
2003 में भाजपा ने बदला चेहरा
2003 के चुनाव में भाजपा ने हाटपीपल्या से चेहरा बदल दिया। भाजपा ने यहां से सरस्वती शिशु मंदिर के प्राचार्य रहे राय सिंह सैंधव को मैदान में उतारा। वहीं कांग्रेस ने फिर से राजेंद्र सिंह बघेल पर भरोसा जताया। इस चुनाव में बघेल ने जीत दर्ज की।
जोशी ने बदली सीट और जीत दर्ज की
स्वर्गीय कैलाश जोशी के बाद उनके पुत्र दीपक जोशी बागली से विधायक थे। 2008 में परिसीमन के बाद बागली सीट अजजा वर्ग के लिए आरक्षित हुई तो भाजपा ने दीपक जोशी को उनको गृह सीट हाटपीपल्या से मैदान में उतारा। इस चुनाव में उनका मुकाबला फिर से कांग्रेस के राजेंद्र सिंह बघेल से हुआ। दीपक जोशी जीतकर विधायक बने। 2013 में फिर भाजपा के जोशी व कांग्रेस के बघेल के बीच मुकाबला हुआ जिसमें जोशी ने फिर जीत दर्ज की।
2018 में हुए चुनाव में भाजपा ने फिर दीपक जोशी पर भरोसा जताया वहीं कांग्रेस ने यहां युवा चेहरे मनोज चौधरी को मैदान में उतारा। इस चुनाव में जोशी को हार का सामना करना पड़ा और चौधरी विधायक बने। 2020 में सत्ता परिवर्तन के बाद चौधरी भाजपाई हो गए। उपचुनाव में वे भाजपा प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे। वहीं कांग्रेस ने पूर्व विधायक बघेल के पुत्र राजवीर सिंह बघेल को मैदान में उतारा। उपचुनाव में चौधरी ने जीत दर्ज की और इस बार वे भाजपा से विधायक चुने गए।
हमारी मित्रता में कोई कमी नहीं आई
पूर्व विधायक तेज सिंह सैंधव ने बताया 1977 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो जनता दल से प्रत्याशी की खोज शुरू हुई। उस दौर में कोई चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था तो मुझे मौका दिया गया। दो चुनाव जीतने के बाद 1985 में मेरे ही सहपाठी ठाकुर राजेंद्र सिंह बघेल कांग्रेस के टिकट पर मेरे सामने थे। हम दोनों इंदौर के शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में साथ पढ़े थे। दोनों ही वहां से छात्रसंघ अध्यक्ष भी रहे। हमारी घनिष्ठ मित्रता थी। एक के बाद एक हमने चार चुनाव एक-दूसरे के खिलाफ लड़े। दो बार बघेल जीते तो दो बार मैं जीता। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने के बाद भी हमारी मित्रता में कोई कमी नहीं आई।
पूर्व विधायक तेज सिंह सैंधव ने बताया 1977 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो जनता दल से प्रत्याशी की खोज शुरू हुई। उस दौर में कोई चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था तो मुझे मौका दिया गया। दो चुनाव जीतने के बाद 1985 में मेरे ही सहपाठी ठाकुर राजेंद्र सिंह बघेल कांग्रेस के टिकट पर मेरे सामने थे। हम दोनों इंदौर के शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में साथ पढ़े थे। दोनों ही वहां से छात्रसंघ अध्यक्ष भी रहे। हमारी घनिष्ठ मित्रता थी। एक के बाद एक हमने चार चुनाव एक-दूसरे के खिलाफ लड़े। दो बार बघेल जीते तो दो बार मैं जीता। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने के बाद भी हमारी मित्रता में कोई कमी नहीं आई।