हजारों साल बाद भी ये चित्र अपनी पहचान बनाए हुए हैं। कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. श्यामसुंदर दुबे ने बताया कि ये चित्र चित्रवीथि प्रागैतिहासिक है। इन चित्रों का 155 वर्ष पहले इसका उल्लेख दमोह दीपक ग्रंथ में भी किया गया है। इसमें इन चित्रों को करीब 15 हजार साल पुराना होना बताया गया है।
यह चित्र विंघ्य की भांदरे शाखा में है। फतेहपुर के पठार नाला रजपुरा के कुडिय़ा नाला में भी ऐसे चित्र देखने को मिलते है। गेरुआ रंग के होने के कारण इन चित्रों को रक्त की पुतरिया भी कहा जाता रहा है। सामान्यत: पशुओं और मनुष्य की आकृति वाले चित्र है जो केवल रेखांकन के माध्यम से बनाए गए है। कहीं-कहीं सीढियां और चैपर जैसी आकृति भी है। इन चित्रों का निर्माण परिवेश के आधार पर ही हुआ है।
आड़ी- तिरछी लाइन से बनाए ये चित्र कोई तांत्रिक चित्र भी हो सकते है। इन चित्रों को पहले महिलाओं ने ही तैयार किया था। उन्हें ही कला का वरदान प्राप्त था। गौरतलब है कि फतेहपुर, रजपुरा, सिलापरी के शैलचित्र प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास भीम बैठका के चित्रों से हूबहू मिलते जुलते थे। ये शैलचित्र आदिमानव के बनाए हुए भी बताए जाते है, जो कुरा पाषाण व मध्य पाषाणकाल के माने जाते हैं।
चित्रकार राजू पलिया कहते है कि ये चित्र महाभारत काल के हो सकते हैं, इस स्थल से कुछ ही दूरी पर भीमकुंड है। यहां पांडवों ने अज्ञातवास का समय काटा था, जब डेरा गुफाओं के पास रहा होगा, तो खाली समय में इन चित्रों को बनाया होगा। यह भी संभावना है। कला के कद्रदानों ने इस अद्वितीय कला को संरक्षण दिए जाने और विश्वस्तरीय पर्यटन केंद्र बनाने की मांग की थी। जिन स्थलों और गुफाओं में यह चित्र है, वहां तक पहुंचना सहज और सरल भी नहीं है। दुर्गम रास्तों से होकर यहां तक पहुंच सकते हैं, गुफा के नीचे भारी खाई है, सारी पर्वत माला पत्थरों की है।
आड़ी- तिरछी लाइन से बनाए ये चित्र कोई तांत्रिक चित्र भी हो सकते है। इन चित्रों को पहले महिलाओं ने ही तैयार किया था। उन्हें ही कला का वरदान प्राप्त था। गौरतलब है कि फतेहपुर, रजपुरा, सिलापरी के शैलचित्र प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास भीम बैठका के चित्रों से हूबहू मिलते जुलते थे। ये शैलचित्र आदिमानव के बनाए हुए भी बताए जाते है, जो कुरा पाषाण व मध्य पाषाणकाल के माने जाते हैं।
चित्रकार राजू पलिया कहते है कि ये चित्र महाभारत काल के हो सकते हैं, इस स्थल से कुछ ही दूरी पर भीमकुंड है। यहां पांडवों ने अज्ञातवास का समय काटा था, जब डेरा गुफाओं के पास रहा होगा, तो खाली समय में इन चित्रों को बनाया होगा। यह भी संभावना है। कला के कद्रदानों ने इस अद्वितीय कला को संरक्षण दिए जाने और विश्वस्तरीय पर्यटन केंद्र बनाने की मांग की थी। जिन स्थलों और गुफाओं में यह चित्र है, वहां तक पहुंचना सहज और सरल भी नहीं है। दुर्गम रास्तों से होकर यहां तक पहुंच सकते हैं, गुफा के नीचे भारी खाई है, सारी पर्वत माला पत्थरों की है।