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कोयंबटूर

ऊंचे लक्ष्य के साथ साधना व ध्यान से आत्मा का विकास

आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि आत्मा की दुर्गति से जो रक्षा करे वही धर्म है। धर्म के आचरण से ही जीवात्मा के परिभ्रमण सद्गति व परंपरा से मुक्ति मिलती है।

कोयंबटूरOct 08, 2019 / 02:24 pm

Dilip

ऊंचे लक्ष्य के साथ साधना व ध्यान से आत्मा का विकास

ऊंचे लक्ष्य के साथ साधना व ध्यान से आत्मा का विकास

कोयम्बत्तूर. आचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि आत्मा की दुर्गति से जो रक्षा करे वही धर्म है। धर्म के आचरण से ही जीवात्मा के परिभ्रमण सद्गति व परंपरा से मुक्ति मिलती है। वे राजस्थानी संघ भवन में चल रहे चातुर्मास कार्यक्रम के तहत नवपद ओली के साथ पर्युषण महापर्व के निमित्त नौ दिवसीय नवाह्निका महोत्सव के दूसरे दिन धर्म सभा को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि धर्मरूपी कल्पवृक्ष पंचमेष्ठि से व्याप्त आत्मा को परमात्मा बनाते हैं। अरिहंत परमात्मा जड़ है, सिद्ध भगवंत फल , आचार्य भगवंत फूल हैं और उपाध्याय पत्ते व साधु भगवंत धड़ के स्थान पर हैं। नवपद ओली के दूसरे दिन सिद्ध पद की आराधना बताई। सिद्ध भगवान आठों प्रकार के कर्मों से मुक्त होने के कारण शाश्वत व निर्बाध सुख प्राप्त किए हुए हैं। संसार के सुख कर्म जन्य हैं। मोक्ष में गई आत्मा सुख दुख से मुक्त होकर आध्यात्मिक सुख में मगन है।
उन्होंने कहा कि मोक्ष में गई सिद्ध आत्मा जन्म, जरा, रोग, शोक,मरण, अज्ञानता, पराधीनता आदि दुखों से मुक्त है। प्रत्येक आत्मा के पीछे एक शुद्ध आत्मा का रूप छिपा है लेकिन ज्ञान वरणीय कर्मों के कारण छिपा हुआ है। यदि जीवात्मा ज्ञान, दर्शन व चारित्र की आराधना द्वारा कर्मों के बंधनों को तोड़ कर कर्मों से मुक्त हो जाए तो उसका मोक्ष संभव है। जैसे किसान कैसा ही अनाज अपने उपयोग में ले लेता है लेकिन फसल बोनी हो तो श्रेष्ठ बीज का ही उपयोग करता है। इसी प्रकार संसार में कोई भी कार्य कैसे भी करें लेकिन धर्म की आराधना मोक्ष के लिए ही होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि जैसे तितली का सतत् ध्यान करने से भ्रमर भी उडऩे लगता है वैसे ही हमारा मन सीढ़ी समान है जो व्यक्ति को नीचे उतार भी सकता है चढ़ा भी सकता है। ऊंचे लक्ष्य के साथ साधना व ध्यान से आत्मा का विकास हो सकता है।
उन्होंने कहा कि मन चचंल है, किसी व्यक्ति या पदार्थ पर राग या स्नेह करता है मन की चंचलता व मलीनता को दूर करने के लिए जो गुणवान है वह अरिहंत पंच परमेष्ठि के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उनके ध्यान में तल्लीन होना चाहिए।

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