खूनी खेल को रोकने के प्रयास सफल नहीं हुए
खूनी खेल को रोकने के लिए कई जिला कलेक्टरों ने प्रयास भी किए। वर्ष 1998 में तत्कालीन कलेक्टर मलय श्रीवास्तव ने गोटमार स्थल पर रबर की गेंदें डाली थीं, लेकिन लोग गेंद अपने घर ले गए और पत्थरों से ही गोटमार खेली। वर्ष 2008 में कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव ने स्वरूप बदलने के लिए खेल स्थल पर सांस्कृतिक आयोजन कराया, लेकिन भीड़ ने आक्रोशित होकर पुलिस और प्रशासन पर ही पथराव कर दिया था। गोटमार स्थल से अधिकारियों को भागना पड़ा था।
अब तक 16 लोगों की हो चुकी है मौत
इस खूनी खेल में अब तक 16 लोग अपनी जान गवा चुके हैं। आज भी गोटमार का खेल नजदीक आते ही मृतकों के परिवार वाले सिहर उठते हैं। इसी तरह गोटमार खेलने वालों के परिवारों की जान सांसत में बनी रहती है।
क्यों न नजीर पेश करें
पांढुर्ना में 27 अगस्त को फिर खूनी खेल खेला जाएगा। पुलिस-प्रशासन की मौजूदगी में गोटमार का आयोजन होगा। आस्था और परंपरा के नाम पर एक दूसरे का खून बहाया जाएगा। जाम नदी के तट पर दिनभर पत्थर बरसेंगे। सैकड़ों लोग घायल होंगे। कई घरों में चूल्हा नहीं जलेगा। खुशियों की जगह दुख का वातावरण निर्मित होगा। पूर्व में भी हिंसक गोटमार में दर्जनभर लोगों की जानें जा चुकी हैं। सैकड़ों लोग अपाहिज हो चुके हैं। अनगिनत लोग आज भी दर्दभरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं। फिर भी पत्थरबाजी का खेल जारी है। आखिर कब तक परंपरा के नाम पर एक-दूसरे को लहूलुहान करने का खेल खेला जाएगा। क्यों न इस बार नजीर पेश की जाए? क्यों न खेल के स्वरूप में बदलाव किया जाए? हिंसक गोटमार की जगह नवाचार किया जाए। पत्थर के स्थान पर रबर की गेंद का प्रयोग किया जाए, ताकि परंपरा का निर्वहन भी होता रहे, जानमाल का भी नुकसान न हो। हिंसा को रोकने में प्रशासन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पत्थर की जगह विकल्प के तौर पर रबर की गेंदें उपलब्ध कराई जाएं। लोगों को हिंसा के विरुद्ध जागरूक किया जाए। समाज के वरिष्ठों को बदलाव के लिए तैयार किया जाए। प्रशासन के हस्तक्षेप से हताहतों की संख्या में कमी लाई जा सकती है। नदी किनारे से पत्थरों को हटाकर रबर की गेंदें मुहैया कराई जा सकती हैं। असामाजिक तत्वों पर नकेल कसी जा सकती है। प्रशासन और जनता ठान ले तो हिंसा पर विराम लग सकता है।
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