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चेन्नई

चिंतामणि रत्न के समान दुर्लभ है मनुष्य भव

जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में दादा-दादी चित्त समाधि शिविर के सहभागियों को आचार्य महाश्रमण ने कहा कि आदमी पहले बच्चा होता है, कभी वह पड़पोता था, कभी पोता था, कभी पिता बनता हैं और आज वह दादा बन गया। दादा यानी जीवन का लगभग आधा समय चला गया। दादा के नीचे दो सीढिय़ां हैं, पुत्र और पौत्र।

चेन्नईNov 23, 2018 / 10:46 pm

मुकेश शर्मा

It is rare as chintamani gem

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चेन्नई।जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में दादा-दादी चित्त समाधि शिविर के सहभागियों को आचार्य महाश्रमण ने कहा कि आदमी पहले बच्चा होता है, कभी वह पड़पोता था, कभी पोता था, कभी पिता बनता हैं और आज वह दादा बन गया। दादा यानी जीवन का लगभग आधा समय चला गया। दादा के नीचे दो सीढिय़ां हैं, पुत्र और पौत्र।

आचार्य ने कहा दादा तीन पीढिय़ों का मालिक होता है। दादा, पोते की ओर ध्यान दे कि उसमें कैसे सद् संस्कारों का बीजारोपण हो? यह भी ध्यान दे कि 70 के बाद चित्त समाधि कैसे रहे? 80-85 की उम्र में तो मन में शांति रहे। परिवार के लोग भी ध्यान रखे कि अगर वे असमाधि हैं, तो भी उन्हें सहन करे, उनकी बातों को सहज में ले और नकारात्मक सोच न हो।

ठाणं सूत्र के छठे स्थान के तेरहवें श्लोक का विवेचन करते हुए आचार्य ने कहा कि शास्त्रकारों ने छह चीजें सर्व जीवों के लिए दुर्लभ बताई है जो कि मनुष्य भव का मिलना, उसके बाद आर्य क्षेत्र में जन्म लेना, श्रेष्ठ कुल में जन्म लेना, केवली प्रज्ञप्त धर्म का श्रवण करना, जो धर्म सुना है उस पर श्रद्धा होना एवं धर्म का आचरण करना। मनुष्य जन्म एक बार मिला, धर्म का मार्ग मिला, उसे पाकर जो खो देता है, वो अभागा है। जैसे कोई व्यक्ति अपने घर में कल्पवृक्ष को उखाड़ कर धतूरे का पेड़ लगाता है। हाथ में आये हुए चिंतामणि रत्न को काग उड़ाने में फेंक देता है।

आचार्य ने श्रावक डालमचन्द मालू द्वारा लिखित तत्व ज्ञान भाग-1 के लोकार्पण पर मंगल आशीर्वचन दिया। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा ने कहा कि बाहर का सूर्य बाहरी अंधकार को दूर करता है, पर गुरू ऐसा सूर्य है, जो आत्मा का अंधकार दूर करने वाले होते हैं, कामधेनु है। मुनि सुधाकर ने भी अपने विचार रखे।

चित्त समाधि शिविर के संयोजक इन्द्रचन्द डूंगरवाल ने कहा कि दादा-दादी सदियों से घर की शान रहे हैं। तपस्वियों को आचार्य ने प्रत्याख्यान कराए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार ने किया। समण संस्कृति संकाय -जैन विश्व भारती द्वारा आयोजित एवं तेरापंथ युवक परिषद् द्वारा संचालित जैन विद्या परीक्षा के सत्र 2017-18 के वरीयता प्राप्त परीक्षार्थीयों को आचार्य प्रवर के सान्निध्य में पुरस्कृत किया गया।

कर्मों जैसा मिलता है सुख-दुख

ताम्बरम में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा संसार में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही सुख और दुख भोगता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सुकाल में भी दुष्काल का दुख भोगते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो अकाल में भी सभी तरह से संपन्न होते हैं। दुष्काल के दुख के ताप का अनुभव नहीं हो पाता है।

उन्होंने कहा यह शरीर धर्म साधना के लिए प्राप्त हुआ है। पानी जिस प्रकार मछली के लिए प्राण है, वैसे ही धर्म मनुष्य का प्राण है। समय, शक्ति और समझ ये तीनों प्राण धर्माराधना के लिए जरूरी है। यह धर्म शाश्वत है। जो दुर्गति में गिरती हुई आत्मा को बचाए वही धर्म है। जो अहिंसा, करुणा, दया से युक्त है वही धर्म है।

आज के युग में हर व्यक्ति सफल और लोकप्रिय होना चाहता है। लोकप्रियता दो प्रकार से होती है कुख्यात और विख्यात। प्रसिद्धि भी दो प्रकार की होती है स्थायी और दीर्घकालीन। स्थायी प्रसिद्धि के लिए स्वभाव उदार होना चाहिए एवं मुख पर प्रसन्नता व मुस्कान होनी चाहिए।

साध्वी सुप्रतिभा ने कहा सामायिक समभाव की साधना है। भगवान महावीर ने भी समत्व साधना, आरधना पर बल दिया है। साधु-संतों का आजीवन सामायिक का संकल्प होता है। श्रावकों को भी प्रतिदिन एक सामायिक का नियम होना जरूरी है।

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