वाराणसी, जिसे पहले बनारस कहा जाता था, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए जन्नत से कम नहीं था। वे कहा करते थे कि दूसरे शहरों में तो रस बनाना पड़ता है, बनारस के तो नाम में ही ‘रस’ ‘बना’ हुआ है। यहां गंगा किनारे घाट पर बैठ कर शहनाई बजाने में उन्हें किसी कंसर्ट से ज्यादा आत्मीय आनंद महसूस होता था। गंगा मैया से उन्हें शहनाई में उन सुरों को फूंकने की ताकत मिलती थी, जो देश-विदेश में जादू जगाते थे। उनकी शहनाई का जादू राजेंद्र कुमार की फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की ‘जलसाघर’ में भी छन-छनकर महसूस हुआ था। अफसोस, उनके पोते इस जादू से बेखबर हैं। याद आता है कि चार साल पहले उस्ताद के मकान में रखीं पांच बेशकीमती शहनाइयां (इनमें चार चांदी की थीं) और दूसरी नायाब चीजें रहस्यमय ढंग से गायब हो गई थीं। उनके पोतों ने चोरी का हल्ला मचाया, लेकिन बाद में एक पोते को ही गिरफ्तार कर पुलिस ने सनसनीखेज खुलासा किया कि उसने उस्ताद की शहनाइयां बाजार में बेच दी थीं और अब उनका कोई नामो-निशान बाकी नहीं है, क्योंकि चंद ग्राम चांदी के लिए उन्हें पिघलाया जा चुका है।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के मकान को संग्रहालय में तब्दील करने की चर्चा कई साल से चल रही है। इस विचार को जल्द से जल्द हकीकत का जामा पहनाने की जरूरत है। कुछ वारिसों की गिद्ध दृष्टि से इस अनमोल विरासत को इसी तरह बचाया जा सकता है।