ऐसा शुरू हुआ फिल्मी सफर
फिल्मों में आने से पहले दिलीप कुमार मुंबई में अपने पिता मोहम्मद सरवर खान के फलों के कारोबार में हाथ बंटाते थे। एक दिन पिता से किसी बात को लेकर उनका मनमुटाव हुआ और वे मुंबई से पुणे आ गए। यहां ब्रिटिश आर्मी कैंटीन में सहायक की नौकरी करने लगे। यहां वे उन्होंने सैंडविच का काम भी किया, जो चल पड़ा। लेकिन एक दिन इस कैंटीन में आजादी के समर्थन के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फिर वहां से मुंबई वापस आ गए। एक दिन जब वे चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तो उनके पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉ. मसानी मिल गए। डॉ. मसानी ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे, उन्होंने साथ में उन्हें भी ले लिया। अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टैंस एंड द शैडो’ में दिलीप कुमार लिखते हैं कि, वैसे तो जाने का मन नहीं था, लेकिन मूवी स्टूडियो देखने का लालच उन्हें वहां ले गया। देविका रानी ने उनसे मुलाकात के दौरान उन्हें 1250 रुपए की नौकरी का प्रस्ताव दिया। साथ ही एक्टर बनने की इच्छा के बारे में पूछा। 1250 रुपए मासिक की तनख्वाह के आकर्षण ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज का एक्टर बना दिया। यहां उनकी ट्रेनिंग शुरू हो गई।
फ्लाइट में हुई थी दिलीप कुमार-जेआरडी टाटा की पहली मुलाकात, एक्टर को मिली थी जीवन की बड़ी सीख
देविका रानी ने सुझाया स्क्रीन नेम
एक दिन देविका रानी ने उनसे कहा,’ यूसुफ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो। ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी। मेरे ख्याल से दिलीप कुमार एक अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया। तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?’ देविका के इस नाम बदलने के विचार से दिलीप सहमत नहीं थे।
सायरा बानो की सांस हैं Dilip Kumar, जानिए कैसे हुई थी पहली मुलाकात और फिर मिसाल बन गई ये जोड़ी
नाम बदलने के लिए मांगा समय
अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं कि नाम तो बहुत अच्छा है, लेकिन क्या ऐसा करना आवश्यक है? इस पर देविका ने कहा कि वे फिल्मों में उनका उज्ज्वल भविष्य देखती रही हैं। ऐसे में स्क्रीन नेम अच्छा रहेेगा और इसमें एक सेक्यूलर अपील भी होगी। दिलीप ने इस आइडिया पर विचार का समय मांगा। अपने साथी से इस बारे में चर्चा की और नाम बदलने को सहमत हो गए। इस नाम के साथ वर्ष 1944 में उनकी पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ रिलीज हुुई। हालांकि उनकी ये पहली फिल्म कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई, लेकिन इसके बाद उनको जो सफलता मिली, उससे साबित हो गया कि देविका रानी ने उनके बारे में सही आंकलन किया था।