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सेंसर बोर्ड के इशारों को नजरअंदाज कर रखे फिल्मों के नाम ‘पगलैट’, ‘पागल’

दो साल पहले अमरीश पुरी के पोते की फिल्म ‘पागल’ के नाम पर आई थी आपत्ति। इसके बाद ‘मेंटल है क्या’ का नाम भी बदलकर ‘जजमेंटल है क्या’ करना पड़ा था। अब ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बनाई गई ‘पगलैट’ सेंसर के दायरे से दूर।

Mar 17, 2021 / 11:03 pm

पवन राणा

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-दिनेश ठाकुर
एक दौर था, जब हिन्दी फिल्मों में ‘पागल’ शब्द आम था। गानों और संवादों में ही नहीं, फिल्मों के नाम में भी इसे धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया। शम्मी कपूर की एक फिल्म का नाम ‘पगला कहीं का’ था। सदाबहार गीत ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’ इसी फिल्म का है। सत्तर के दशक में राखी की एक फिल्म का नाम ‘पगली’ था। ‘दिल तो पागल है’ के बारे में तो सब जानते हैं। दो साल पहले अमरीश पुरी के पोते वर्धान पुरी की पहली फिल्म ‘पागल’ के नाम पर सेंसर बोर्ड की भृकुटियां तन गईं। बोर्ड का तर्क था कि फिल्मों के ऐसे नाम रखकर दिमागी तौर पर अस्वस्थ लोगों का उपहास उड़ाने से बचना चाहिए। तर्क में दम था। आखिर फिल्मों को समाज के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। ‘पागल’ का नाम बदलकर ‘ये साली आशिकी’ रख दिया गया। इससे पहले सेंसर बोर्ड के एतराज पर राजकुमार राव की ‘मेंटल है क्या’ का नाम बदलकर ‘जजमेंटल है क्या’ करना पड़ा था।

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स्वयं-सिद्ध पगडंडी से दाएं-बाएं होने को तैयार नहीं
इन दोनों फिल्मों के नामों पर बोर्ड का सख्त रुख फिल्म वालों के लिए इशारा था कि ऐसे नामों से परहेज किया जाए। ‘मैं तो एक पागल, पागल क्या दिल बहलाएगा’ (अनहोनी) तथा ‘मैं तेरे प्यार में पागल’ (प्रेम बंधन) का दौर अलग था। अब इस शब्द को लेकर फिल्म वालों को जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। इसके बावजूद कुछ फिल्म वाले स्वयं-सिद्ध पगडंडी से दाएं-बाएं होने को तैयार नहीं हैं। ‘बालिका वधु’ सीरियल की आनंदी यानी अविका गौर की एक तेलुगु फिल्म बन रही है, जिसका नाम ‘पागल’ रखा गया है। इसी तरह सान्या मल्होत्रा की नई फिल्म का नाम ‘पगलैट’ है। यह नए जमाने की नारीवादी फिल्म बताई जाती है। शायद इस नाम को तर्कसंगत बताने के लिए इसके ट्रेलर में सान्या मल्होत्रा कह रही हैं, ‘जब लड़कियों को अक्ल आती है, सब उन्हें पगलैट ही कहते हैं।’

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बदल सकता है अविका गौर की ‘पागल’ का नाम
मुमकिन है, अविका गौर की ‘पागल’ का नाम सेंसर बोर्ड के दफ्तर में पहुंचकर बदल जाए। ‘पगलैट’ एक ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए बनाई गई है। इसका 26 मार्च को डिजिटल प्रीमियर होने वाला है। तरह-तरह के विवादों के बावजूद यह प्लेटफॉर्म फिलहाल सेंसर के दायरे से आजाद हैं। शायद इसीलिए ‘पगलैट’ बनाने वालों ने सेंसर बोर्ड के इशारों की परवाह नहीं की। यह ऐसी युवती की कहानी है, जो पति की मौत पर रोना-धोना नहीं करती। गोल-गप्पे खाती है। मनोरंजन के दूसरे रास्ते खोजती है। पति के बीमे के 50 लाख रुपए मिलने के बाद उसकी यह खोज और आसान हो जाती है। उसकी इस मौज-मस्ती को लेकर उसके परिजन हैरान-परेशान हैं।

प्रभावी निगरानी तंत्र का अभाव
ओटीटी कंपनियों के लिए सरकार ने हाल ही कुछ नियम तय किए हैं, लेकिन कोई प्रभावी निगरानी तंत्र नहीं होने से इनकी मनमानी बदस्तूर जारी है। इन कंपनियों के हिमायती तर्क देते हैं कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के दर्शक सिनेमाघरों के दर्शकों से ज्यादा परिपक्व और समझदार हैं। तो क्या यह माना जाए कि इन कथित ‘परिपक्व और समझदार’ दर्शकों को गालियां, भद्दे मजाक तथा हद से ज्यादा अश्लीलता पसंद है? बच्चों के अनुचित चित्रण के लिए राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग को वेब सीरीज ‘बॉम्बे बेगम्स’ वालों को नोटिस क्यों थमाना पड़ता है? कुछ वेब सीरीज में ऐसे-ऐसे संवाद होते हैं कि अगर द्विअर्थी संवादों के उस्ताद दादा कोंडके इन्हें सुन पाते, तो उनकी आंखें भी खुली की खुली रह जातीं।

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