बांग्ला फिल्मों के जरिए भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय फलक पर उभारने में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले दिग्गज अभिनेता सौमित्र चटर्जी ( Soumitra Chatterjee ) नहीं रहे। दीपावली के दूसरे दिन उसी कोलकाता के एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली, जिस कोलकाता पर वे उम्रभर मोहित रहे और जिससे दूरियों को टालने के लिए उन्होंने कई बड़ी हिन्दी फिल्मों के प्रस्ताव ठुकरा दिए। राज कपूर ( Raj Kapoor ) उन्हें अपनी ‘संगम’ ( Sangam Movie ) में लेना चाहते थे, तो ए. भीमसिंह ‘आदमी’ में उन्हें दिलीप कुमार ( Dilip Kumar ) के साथ देखना चाहते थे। हृषिकेश मुखर्जी ने भी काफी कोशिश की, लेकिन सौमित्र चटर्जी अपने समकालीन उत्तम कुमार और उत्पल दत्त की तरह हिन्दी सिनेमा मेे सक्रिय नहीं हुए। डॉ. वसीम बरेलवी के शेर ‘जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा/ किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता’ की तर्ज पर उन्होंने बांग्ला फिल्मों के जरिए दुनियाभर में अपनी अदाकारी की रोशनी लुटाई। वैसे 12 साल पहले वे प्रशांत बाल की हिन्दी फिल्म ‘हिन्दुस्तानी सिपाही’ में मिथुन चक्रवर्ती और देबश्री राय के साथ नजर आए थे। रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘देना पावना’ पर बनी हिन्दी टेली फिल्म ‘निरुपमा’ में उनका अहम किरदार था। उन्होंने टेली फिल्म ‘स्त्री के पत्र’ (1986) का निर्देशन भी किया।
नामी हस्तियों के साथ कई फिल्में
भारतीय सिनेमा के शिखर सम्मान फाल्के अवॉर्ड ( Dadasaheb Phalke Award ) से नवाजे गए सौमित्र चटर्जी की उपलब्धि सिर्फ यह नहीं है कि उन्होंने ‘अपुर संसार’, ‘देवी’, ‘चारूलता’, ‘अर्णेर दिन रात्रि’, ‘तीन कन्या’ समेत सत्यजीत राय की 14 फिल्मों में काम किया। वे मृणाल सेन, तपन सिन्हा, तरुण मजुमदार सरीखे दूसरे फिल्मकारों के भी पसंदीदा अभिनेता थे। वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, सुचित्रा सेन, तनुजा, मौसमी चटर्जी, अपर्णा सेन आदि ने बांग्ला फिल्मों में उनके साथ काम किया। सौमित्र चटर्जी का बांग्ला सिनेमा (टॉलीगंज) में वही रुतबा था, जो हिन्दी सिनेमा में दिलीप कुमार का है। उनके अभिनय की सहजता पर्दे पर कई रूपों में उजागर होती थी। उनके पास अपनी विकलताएं, विचारधारा, समझ, नजरिया और संवेदनाएं थीं, जो उन्हें समकालीन अभिनेताओं से अलग करती थीं।
जब उत्तम कुमार बने नायक, सौमित्र खलनायक
सत्यजीत राय ( Satyajit Ray ) के रचे जासूसी किरदार फेलुदा की बारीकियों को समझकर सौमित्र चटर्जी ने जिस तरह जीवंत किया, उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। इस किरदार पर बनीं ‘सोनार किला’ और ‘बाबा फेलुनाथ’ उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में गिनी जाती हैं। अपनी पहली फिल्म ‘अपुर संसार’ में उन्होंने नौजवान लेखक का किरदार शिद्दत से अदा किया, जो शादी के बाद अपनी जिंदगी में आए उतार-चढ़ाव से परेशान है। तपन सिन्हा की ‘झिंदेर बंदी’ में उत्तम कुमार नायक थे और सौमित्र चटर्जी खलनायक। दोनों में से किसकी अदाकारी ज्यादा उम्दा है, इसका फैसला सिक्का उछाल कर ही किया जा सकता है। ‘रूपकथा नॉय’ में रिटायर्ड बुजुर्ग के किरदार में भी सौमित्र चटर्जी की अदाकारी बुलंदी पर रही।
अवॉर्ड में सियासत का मुखर विरोध
सौमित्र चटर्जी सरकारी अलंकरण और पुरस्कारों में भेदभाव तथा सियासत के मुखर विरोध के लिए भी चर्चित रहे। सत्तर के दशक में उन्होंने पद्मश्री लेने से यह कहकर इनकार कर दिया कि उन्हें यह अलंकरण काफी पहले मिल जाना चाहिए था। बाद में उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया गया। आठ साल पहले फाल्के अवॉर्ड से नवाजे जाने पर उन्होंने कहा था- ‘भारतीय सिनेमा का यह सर्वोच्च सम्मान पाकर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। कम से कम यह पुरस्कार किसी तरह की राजनीति से परे था। मैं 50 से भी ज्यादा साल से काम कर रहा हूं। मुझे खुशी है कि मेरे काम को सराहा गया।’ फाल्के अवॉर्ड की ज्यूरी ने 2012 में प्राण, मनोज कुमार और वैजंतीमाला के बजाय सौमित्र चटर्जी को चुना। इससे पहले 2001 में उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समिति पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का विशेष ज्यूरी पुरस्कार ठुकरा दिया था।
‘शोले’ की करते थे तारीफ
सौमित्र चटर्जी बॉलीवुड फिल्में ज्यादा नहीं देखते थे, लेकिन श्याम बेनेगल की फिल्मों से काफी प्रभावित थे। रमेश सिप्पी की ‘शोले’ को वे फिल्म निर्माण का उम्दा उदाहरण मानते थे। अपनी कामयाबी का श्रेय वे सत्यजीत राय देते थे। अक्सर कहा करते थे- ‘मैं आज जो कुछ हूं, राय की बदौलत हूं। यदि उनके जैसा महान निर्देशक नहीं होता, तो शायद मैं अच्छा अभिनय नहीं कर पाता।’
नाटकों में भी सक्रिय रहे
फिल्मों के साथ-साथ सौमित्र चटर्जी नाटकों में भी सक्रिय रहे। इस क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए 1998 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से नवाजा गया। उन्होंने तीन फिल्मों ‘अंतर्ध्यान’, ‘देखा’ और ‘पदक्षेप’ के लिए नेशनल अवॉर्ड भी जीते। लेकिन सबसे बड़ा अवॉर्ड था दर्शकों का प्यार, जो उनकी फिल्मों को दिल खोलकर मिलता था।