कहावतों, मुहावरों, गीतों और आम बोलचाल में 12 के अंक की बड़ी महिमा है। घड़ी आदमी पर इतनी हावी है कि जरा-सा काम बिगडऩे पर वह ‘बारह बजने’ की शिकायत करने लगता है। शायद इसलिए कि 12 बजाना घड़ी की हद है। इसके बाद वह फिर एक से शुरू करती है। एक कहावत है- ‘बारह में से तीन गए तो रही खाक। गणित वालों को इस कहावत से शिकायत हो सकती है, लेकिन कहावत बनाने वालों ने बड़ा मंथन किया है। उनके हिसाब से साल के 12 महीनों में से अगर बरसात के तीन महीने सूखे निकल जाएं, तो अनाज के बदले खाक ही हाथ लगती है। पंजाबी के खासे लोकप्रिय गीत ‘बारी बरसी खटन गया सी’ (बारह साल काम करने गया) में भी 12 की महिमा गाई गई, तो ‘पांच रुपैया बारह आना’ (चलती का नाम गाड़ी), ‘बारह बजे की सूइयों जैसे’ (झूठा कहीं का) और ‘रात के बारह बजे’ (मुजरिम) जैसे फिल्मी गानों में भी 12 ठोक-बजाकर मौजूद है।
जी.पी. सिप्पी ने भी बनाई थी ’12 ओ क्लॉक’
‘शोले’ वाले जी.पी. सिप्पी ने 1958 में एक फिल्म ’12 ओ क्लॉक’ ( 12 ‘o’ Clock Movie ) बनाई थी, जिसका निर्देशन प्रमोद चक्रवर्ती ने किया था। इस ब्लैक एंड व्हाइट सस्पेंस फिल्म में मुम्बई के दादर रेलवे स्टेशन पर एक महिला (सविता चटर्जी) की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। उसकी बहन (वहीदा रहमान) शक के दायरे में है। इनके प्रेमी वकील (गुरुदत्त) को इन्हें बेकसूर साबित करना है। फिल्म का नाम हॉलीवुड के ग्रेगरी पैक की ’12 ओ क्लॉक हाइ’ (1949) से प्रेरित होकर रखा गया था। इसके ओ.पी. नैयर की धुनों वाले तीन गाने ‘कैसा जादू बलम तूने डारा’, ‘मैं खो गया यहीं कहीं’ और ‘तुम जो हुए मेरे हमसफर’ काफी चले थे।
..क्योंकि डरना मना भी है और जरूरी भी
अब 62 साल बाद एक और ’12 ओ क्लॉक’ बनाई गई है। यह रामगोपाल वर्मा ( Ram Gopal Varma ) की हॉरर फिल्म है। हॉरर उनका पसंदीदा फार्मूला है। वे कुछ अच्छी, कुछ खराब और कुछ हद से ज्यादा खराब हॉरर फिल्में बना चुके हैं। इनमें ‘रात’, ‘भूत’, ‘वास्तु शास्त्र’, ‘डार्लिंग’, ‘फूंक’, ‘अज्ञात’, ‘डरना मना है’ और ‘डरना जरूरी है’ शामिल हैं। मिथुन चक्रवर्ती, फ्लोरा सैनी, मानव कौल, मकरंद देशपांडे, आशीष विद्यार्थी आदि के नाम ’12 ओ क्लॉक’ से जुड़े हुए हैं। इसे आठ जनवरी को सिनेमाघरों में उतारने की तैयारी है। लोगों में कोरोना का डर फिलहाल दूर नहीं हुआ है। जिन राज्यों में सिनेमाघर खुल चुके हैं, वहां रौनक अब तक नहीं लौटी है। इस मुश्किल घड़ी में अगर कोई फिल्म लोगों को सिनेमाघरों तक खींचने में कामयाब रहती है, तो यह फिल्म कारोबार के लिए संजीवनी से कम नहीं होगा।
‘कारखाने’ में धड़ाधड़ फिल्मों का उत्पादन
रामगोपाल वर्मा को भी अपना सिक्का फिर जमाने के लिए एक अदद कामयाब फिल्म की सख्त जरूरत है। पिछले कुछ साल के दौरान ‘गायब’, ‘नाच’, ‘रामगोपाल वर्मा की आग’, ‘डिपार्टमेंट’, ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’, ‘जेम्स’, ‘दरवाजा बंद रखो’, ‘वीरप्पन’ आदि की नाकामी ने उन्हें मुख्यधारा से अलग-थलग कर रखा है। इसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। फिल्म बनाना कला है, लेकिन वर्मा अपने ‘कारखाने’ में इनका धड़ाधड़ उत्पादन करने लगे। गिनती बढ़ाने के चक्कर में फिल्म बनाने का सलीका उनके हाथ से फिसल गया। उनकी कुछ निहायत बचकाना फिल्में देखकर यकीन नहीं आता कि ये उस फिल्मकार ने बनाई हैं, जो कभी ‘सत्या’, ‘शूल’ और ‘रंगीला’ से मनोरंजन कर चुका है।