रक्षाबंधन के उत्साह-उमंग के बीच सोमवार को संस्कृत दिवस चुपचाप गुजर गया। संस्कृत प्रेमियों की शिकायत हो सकती है कि इस मौके पर दूरदर्शन समेत किसी टीवी चैनल ने न तो संस्कृत भाषा की फिल्म दिखाई और न किसी विशेष कार्यक्रम का प्रसारण किया। मान लीजिए कि कोई संस्कृत फिल्म दिखाई भी जाती तो उसे कितने लोग देखते? भारत में संस्कृत को देवी-देवताओं की भाषा माना जाता है, लेकिन 33 कोटि देवी-देवताओं को पूजने वाले देश में संस्कृत बोलने वालों की आबादी कुल आबादी का एक फीसदी भी नहीं है। नौ साल पहले की जनगणना के हिसाब से भारत में यह भाषा बोलने वाले सिर्फ 0.00198 फीसदी थे। इस नाम मात्र की आबादी को देखते हुए टीआरपी की बैसाखियों के सहारे चलने वाले टीवी चैनल्स पर संस्कृत फिल्मों का प्रसारण फिलहाल मृग मरीचिका लगता है।
संस्कृत को लेकर भारतीय सिनेमा की सुस्ती को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि सदियों पुरानी इस भाषा पर पहली फीचर फिल्म ‘आदि शंकराचार्य’ 1983 में बनाई गई। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के धन से बनी इस फिल्म का निर्देशन कन्नड़ फिल्मकार जी.वी. अय्यर ने किया था। ‘आदि शंकराचार्य’ ने चार नेशनल अवॉर्ड जीतकर सुर्खियां खूब बटोरीं, लेकिन इसे दर्शक नसीब नहीं हुए। इसीलिए दूसरी संस्कृत फिल्म ‘भागवद गीता’ बनने में दस साल लग गए। यह भी जी.वी. अय्यर ने बनाई थी। इसने भी नेशनल अवॉर्ड जीता। दिलचस्प तथ्य यह है कि संस्कृत फिल्मों का सूरज दक्षिण से ही उदय होता रहा है। यानी अब तक गिनती की जो ऐसी फिल्में बनी हैं, दक्षिण के फिल्मकारों ने बनाई हैं। इस यज्ञ में मुख्यधारा की फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड ने अब तक आहुति नहीं दी है।
दक्षिण में भी ‘भागवद गीता’ (1993) के बाद संस्कृत फिल्मों को लेकर 22 साल तक सन्नाटा रहा। केरल के फिल्मकार विनोद मंकारा ने 2015 में ‘प्रियमानसम्’ बनाकर यह सन्नाटा तोड़ा। इसके बाद इस दिशा में केरल के ही फिल्मकारों ने सक्रियता दिखाई। जी. प्रभा ने ‘इष्टि’ (2016), एम. सुरेंद्रम ने ‘सूर्यकांता’ (2016) और पी.के. अशोकन ने ‘अनुरक्ति’ (2017) बनाई। ‘अनुरक्ति’ पहली 3डी संस्कृत फिल्म है। सौ साल से ज्यादा उम्र के भारतीय सिनेमा में संस्कृत फिल्मों की संख्या अब तक दहाई के अंक को नहीं छू सकी है तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इन्हें दर्शक नहीं मिलते। सिर्फ अवॉर्ड और प्रचार से इनकी नैया पार नहीं हो पाती। संस्कृत की कहावत है- ‘शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।’ यानी सौ हाथों से कमाओ और हजार से दान करो। लेकिन अगर कमाई ही नहीं होगी तो दान की संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं।