जिंदगी में कुछ भी स्थिर और स्थायी नहीं होता। न हालात, न ख्यालात। उस्मान शाकिर का मिसरा है- ‘वक्त के साथ ख्यालात बदल जाते हैं।’ अस्सी के दशक में विनोद खन्ना के ख्यालात बार-बार बदले। कारोबारी सिनेमा के लिए अमिताभ बच्चन के बाद वह सबसे भरोसेमंद सितारे के तौर पर उभरे थे। अचानक 1982 में संन्यासी हो गए। गौतम बुद्ध की तरह तमाम ठाट-बाट और बीवी-बच्चे छोड़कर ओशो रजनीश की शरण में चल दिए। ‘कम नहीं मेरी जिंदगी के लिए/ चैन मिल जाए दो घड़ी के लिए’ की तर्ज पर सुकून की खोज में भटकते रहे। जिनकी फिल्में अधूरी छोड़ गए थे, उनका सुकून छूमंतर हुआ। बीवी गीतांजलि के सामने तलाक के अलावा कोई रास्ता नहीं था। पांच साल बाद फिर विनोद खन्ना के ख्यालात बदले। ओशो का सम्मोहन टूटा। फिल्मों में लौट आए। विनोद खन्ना की तरह महेश भट्ट और विजय आनंद ने भी ओशो के माया लोक की सैर की। विजय आनंद वहां से लौटकर फिर कभी ‘तीसरी मंजिल’, ‘गाइड’ या ‘ज्वेल थीफ जैसी फिल्म नहीं बना सके।
आमिर खान की वेब सीरीज का अता-पता नहीं
ओशो रजनीश का माया लोक फिल्म वालों को आकर्षित करता रहा है। उनकी शुरुआती जिंदगी पर पहली बायोपिक ‘रिबेलियस फ्लावर’ (विद्रोही फूल) 2016 में बन चुकी है। तीन साल पहले खबर थी कि उन पर वेब सीरीज की तैयारी चल रही है। इसमें उनका किरदार आमिर खान अदा करेंगे, जबकि आलिया भट्ट उनकी शिष्या शीला आनंद बनेंगी। इस वेब सीरीज का तो फिलहाल कुछ अता-पता नहीं है, निर्देशक रितेश एस. कुमार की फिल्म ‘सीक्रेट्स ऑफ लव’ जरूर तैयार हो गई है। इसमें रजनीश की अलग-अलग उम्र के किरदार रवि किशन, विवेक मिश्रा और जयेश कपूर ने अदा किए हैं। फिल्म की शूटिंग महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में की गई।
कभी ‘आचार्य’, कभी स्वयंभू ‘भगवान’
विवादास्पद आध्यात्मिक गुरु रजनीश ‘ओशो’ काफी बाद में बने। जबलपुर और सागर में जब वह दर्शन शास्त्र पढ़ाते थे, तब सिर्फ रजनीश जैन या रजनीश मोहन जैन हुआ करते थे (इससे पहले उनका नाम चंद्र मोहन जैन था)। उनके प्रवचनों का अंतरराष्ट्रीय सिलसिला शुरू हुआ, तो पहले उनके नाम के आगे ‘आचार्य’ जुड़ा। फिर स्वयंभू ‘भगवान’ हो गए। इस अति उच्च स्तरीय विशेषण पर हो-हल्ला हुआ, तो वह खुद को ‘ओशो’ कहने और कहलवाने लगे। इस जापानी शब्द का मतलब है ऐसा व्यक्ति, जो विराट ब्रह्म में एकाकार हो गया हो। जैसे कोई बूंद समुद्र में मिलकर एकाकार होती है।
विचारों का अथाह भंडार
परम्पराओं और रूढिय़ों के खिलाफ विचारों का अथाह भंडार रखने वाले रजनीश जरूरत से ज्यादा खुलेपन के हिमायती थे। इसलिए भारत में तो उनका विरोध हुआ ही, अमरीका में भी भृकुटियां तनी रहीं। वह हर बात को तर्क से काटने में माहिर थे। एक बार हरिवंश राय बच्चन ने उन्हें अपनी कविता ‘इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो’ सुनाई, तो रजनीश बोले, ‘यहीं गलती हो गई। सच्चे प्रेमी को प्रेमिका के दरवाजे पर दस्तक देनी चाहिए। उसकी पुकार का इंतजार नहीं करना चाहिए।’ पुणे के कोरेगांव पार्क में अपने आश्रम के जिस हॉल में रजनीश प्रवचन देते थे, उसके प्रवेश द्वार पर तख्ती लगी थी- ‘जूते और दिमाग यहीं छोड़ दें।’ यानी प्रखर दिमाग वाले रजनीश के सामने किसी और दिमाग वाले की क्या जरूरत है।