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मोहम्मद रफी की बरसी पर विशेष : जब फांसी से पहले मुजरिम ने कहा- ‘मुझे सिर्फ यह गाना सुना दीजिए’

साठ के दशक के आखिर में राजेश खन्ना ( Rajesh Khanna ) के साथ किशोर कुमार ( Kishore Kumar ) तेजी से उभरे। उस समय कुछ लोगों ने कहा कि मोहम्मद रफी ( Mohammad Rafi ) का सूरज अब ढल चुका है। इन लोगों को शायद पता नहीं होगा कि सूरज कभी नहीं ढलता।

Jul 30, 2020 / 11:45 pm

पवन राणा

मोहम्मद रफी की बरसी पर विशेष : जब फांसी से पहले मुजरिम ने कहा- ‘मुझे सिर्फ यह गाना सुना दीजिए’

-दिनेश ठाकुर
चालीस साल पहले की 31 जुलाई। मोहम्मद रफी ( Mohammad Rafi ) घर पर संगीतकार श्यामल मित्र के साथ उन बांग्ला गानों का रियाज कर रहे थे, जो दुर्गा पूजा के लिए रिकॉर्ड किए जाने वाले थे। दोपहर एक बजे अचानक उन्होंने सीने में दर्द की शिकायत की। उन्हें अस्पताल ले जाया गया। करोड़ों दिलों की धड़कनें बढ़ाने वाले रफी की सांसों पर दिल के दौरे ने रात करीब दस बजे पूर्ण विराम लगा दिया। रेडियो पर उनके इंतकाल की खबर हर किसी के लिए वज्रपात थी। देश में दो दिन तक राजकीय शोक रहा और कई दिनों तक उनके सैकड़ों कालजयी गीत फिजाओं में गूंजते रहे- ‘ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे’, ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं’, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, ‘मन रे तू काहे न धीर धरे’ वगैरह-वगैरह।
मोहम्मद रफी की आवाज बीसवीं सदी का ऐसा कुदरती करिश्मा थी, जिसे कुदरत भी नहीं दोहरा पाई। बहुत मीठी और मासूम तबीयत के इंसान, मुश्किल से मुश्किल स्वर जिनके गले से बड़ी सहज निकासी के साथ अमर हो जाते थे। उनकी गायकी में स्वर की बुलंदी भी थी तो स्वर का सच्चा आनंद भी। ‘बैजू बावरा’ का ‘ओ दुनिया के रखवाले’ सुनकर दुनिया उनकी आवाज की व्यापक रेंज से रू-ब-रू हुई थी। इस गाने में लम्बे आलाप के साथ उनकी आवाज जितनी सहजता से ‘महल उदास और गलियां सूनी’ के बाद ऊंचे सुर तय करती है, उतनी ही सहजता से सुर की सीढिय़ां उतरते हुए ‘चुप-चुप हैं दीवारें’ पर आकर गहन पीड़ा को अभिव्यक्त कर देती है। फिल्म संगीत में ऐसा जादू कोई दूसरा पुरुष स्वर नहीं जगा सका। अनवर, मोहम्मद अजीज, शब्बीर कुमार वगैरह ने उनकी गायन शैली का अनुसरण करने की कोशिश की, लेकिन उनकी खाली जगह को कोई नहीं भर पाया।
किसी जमाने में ‘ओ दुनिया के रखवाले’ की लोकप्रियता का क्या आलम था, इसको लेकर संगीतकार नौशाद एक घटना का जिक्र किया करते थे। इसके मुताबिक फांसी से पहले एक मुजरिम से उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछी गई तो उसने कहा- ‘मरने से पहले मैं एक बार ‘ओ दुनिया के रखवाले’ सुनना चाहता हूं।’ जेल में टेप रिकॉर्डर का बंदोबस्त कर उसकी यह ख्वाहिश पूरी की गई।
सबसे ज्यादा गाने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए गाए
मोहम्मद रफी की दरियादिली के भी कई किस्से मशहूर हैं। एक किस्सा बुजुर्ग संगीतकार प्यारेलाल शर्मा (लक्ष्मीकांत के जोड़ीदार) अक्सर सुनाया करते हैं। साठ के दशक की शुरुआत में जब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल फिल्म इंडस्ट्री में पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन्हें छोटे बजट की ‘छैला बाबू’ के संगीत का जिम्मा सौंपा गया। उन दिनों मोहम्मद रफी सबसे महंगे गायक थे। उनका मेहनताना प्रति गीत करीब पांच हजार रुपए हुआ करता था। तब लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की हैसियत एक गाने की इतनी रकम चुकाने की नहीं थी, लेकिन रफी की आवाज में एक गाना (तेरे प्यार ने मुझे गम दिया) रिकॉर्ड करना चाहते थे। उन्होंने समस्या रफी को बताई तो वे बोले- ‘पैसों की फिक्र छोड़ो, गाना रिकॉर्ड करो।’ रिकॉर्डिंग के बाद रफी जाने लगे तो लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने सकुचाते हुए एक लिफाफा उन्हें थमा दिया। उसमें 500 रुपए थे। रफी ने इन्हें दोनों के हाथों में रखकर कहा- ‘यह मेरी तरफ से शगुन है। इसी तरह मिल-बांटकर काम करते रहो।’ कुछ साल बाद लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल सबसे कामयाब संगीतकार के तौर पर उभरे। रफी ने अपनी जिंदगी के सबसे ज्यादा गाने इसी जोड़ी के लिए गाए। इनमें ‘दोस्ती’ का सदाबहार ‘चाहूंगा मैं तुझे शाम सवेरे’ और उनका आखिरी गाना ‘तू कहीं आस-पास है दोस्त’ (आस-पास) शामिल है।
सूरज कभी नहीं ढलता
साठ के दशक के आखिर में राजेश खन्ना के साथ किशोर कुमार तेजी से उभरे। उस समय कुछ लोगों ने कहा कि मोहम्मद रफी का सूरज अब ढल चुका है। इन लोगों को शायद पता नहीं होगा कि सूरज कभी नहीं ढलता। किशोर कुमार के दौर में ही उन्होंने ‘क्या हुआ तेरा वादा’ (हम किसी से कम नहीं) के लिए नेशनल अवॉर्ड जीता। उसी दौर में उनके ‘तुम जो मिल गए हो’, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, पर्दा है पर्दा, शिर्डी वाले सांईबाबा, आदमी मुसाफिर है, मेरा मन तेरा प्यासा, मैंने पूछा चांद से, जनम-जनम का साथ है हमारा तुम्हारा, ‘गुलाबी आंखें’ और ‘दर्दे-दिल दर्दे-जिगर’ जैसे सैकड़ों गानों ने लोगों को दीवाना बनाए रखा।
हर मूड के गानों में महारथ
गाना चाहे रोमांटिक हो (जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात), वियोग का (हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए), भक्ति का (बड़ी देर भई नंदलाला), देशभक्ति का (जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा) या मौज-मस्ती का (मैं जट यमला पगला दीवाना), मोहम्मद रफी की आवाज हर मूड में रंग-रंग के फूल खिला देती थी। उनकी तबीयत में इतनी मासूमियत, इतनी भावुकता, इतनी गहराई, इतनी तन्मयता और इतने उल्लास का स्रोत थी उनकी सादगी। वे संत तबीयत वाले इंसान थे। कोई तारीफ करता तो आसमान की तरफ हाथ उठा देते। उनकी सुरीली तबीयत का राज शायद उनके इस गीत में छिपा है- ‘मैं कब गाता मेरे स्वर में प्यार किसी का गाता है/ मैं तो हूं एक तार छेड़ कर कोई मुझे बजाता है।’

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