सिनेमा और साहित्य के सेतु
शैलेन्द्र का फिल्मों में आगमन ऐसे समय हुआ, जब जमाना साहिर लुधियानवी, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी और जां निसार अख्तर जैसे बड़े शायरों के गीतों पर झूम रहा था। इनकी तरह शैलेन्द्र ने भी सिनेमा और साहित्य की दूरियां मिटाने के लिए अपने गीतों को सेतु बनाया। उनके ‘तू प्यार का सागर है’, ‘अजीब दास्तां है ये, कहां शुरू कहां खत्म’, ‘रात ने क्या-क्या ख्वाब दिखाए’, ‘अपनी तो हर आह इक तूफान है’, ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’, ‘होठों पे सच्चाई रहती है’, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ और ‘फिर वो भूली-सी याद आई है’ जैसे अनगिनत गीत किसी उम्दा साहित्यिक रचना से कमतर नहीं हैं। गहरी अनुभूतियों और दर्शन को शैलेन्द्र सीधी-सादी शब्दावली में इस तरह बांधते थे कि दिल की बात सीधे दिल तक पहुंचती थी। ‘गाइड’ में उनके लिखे ‘वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां’ का अंतरा है- ‘कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी, पानी पे लिखी लिखाई/ है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ किसी के न आई।’ शैली, भाव और लालित्य के हिसाब से यह रूहानी गीत अलग ही रंग में ढला महसूस होता है। ऐसा रंग, जो शैलेन्द्र का अपना था। किसी पूर्ववर्ती रचना के साए से एकदम अलग।
शब्दों के पारखी और जडिय़ा
शैलेन्द्र को शब्दों की तासीर और ताकत की गहरी समझ थी। वे शब्दों के पारखी और जडिय़ा थे। ‘रमैया वस्तावैया’ जैसे अप्रचलित शब्द भी वे गीतों में इस तरह जड़ते थे कि वह अपनी जगह सही और सटीक लगता था। आम आदमी की भाषा उनकी भाषा थी। शायद ही कोई दूसरा गीतकार होगा, जो उनकी तरह आम शब्दों से खेला हो और खुलकर खेला हो। इसीलिए ‘सुहाना सफर और ये मौसम हसीं’, ‘खोया-खोया चांद खुला आसमान’, ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौटके आना’, ‘तेरा मेरा प्यार अमर’, ‘क्या से क्या हो गया’, ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, ‘दिन ढल जाए’, ‘अपनी कहानी छोड़ जा’, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार’, ‘ये रात भीगी-भीगी’, ‘मेरा जूता है जापानी’ और ‘अहा रिमझिम के ये प्यारे-प्यारे गीत’ जैसी निर्मल-सजल रचनाएं आसानी से सुनने वालों के अंतरतम तक पैठ जाती हैं।
क्लासिक ‘तीसरी कसम’ बनाई
गीतकार की हैसियत से लम्बी कामयाब पारी के बाद शैलेन्द्र ने फिल्मकार के तौर पर जो एकमात्र फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई, वह भी सनद है कि सिनेमा को साहित्य से जोडऩे के लिए वे कितने समर्पित थे। फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी इस फिल्म का कारोबारी मैदान में वहीं हश्र हुआ, जो गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ का हुआ था। बरसों बाद ‘तीसरी कसम’ को क्लासिक फिल्म का दर्जा मिला, लेकिन तब तक शैलेन्द्र ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ गाते हुए दुनिया से विदा हो चुके थे।