बॉलीवुड

Ketan Mehta की ‘भवनी भवाई’ के 51 साल, आज भी पुरानी नहीं पड़ी कहानी

सत्यजीत रॉय की ‘सद्गति’ के मुकाबले ज्यादा धारदार, बेबाक और खरी फिल्म
हरिजनों की तीन पीढिय़ों के संघर्ष को यथार्थवादी ढंग से पर्दे पर उतारा
बतौर निर्देशक पहली फिल्म के लिए केतन मेहता ने जीता था नेशनल अवॉर्ड

Feb 03, 2021 / 11:50 pm

पवन राणा

Ketan Mehta Bhavni Bhavai Movie

-दिनेश ठाकुर

कुछ फिल्मों में कुछ ऐसा खास बात होती है कि उन पर पुरानेपन की धूल नहीं जमती। जब भी देखिए, महसूस होगा कि हम आज का किस्सा पर्दे पर देख रहे हैं। केतन मेहता ( Ketan Mehta ) की ‘भवनी भवाई’ (हिन्दी में ‘अंधेरनगरी’) ( Bhavni Bhavai Movie ) इसी तरह की फिल्म है। इसे 51 साल पूरे हो चुके हैं। इसमें छुआछूत का जो पाखंड दिखाया गया, उससे हमारा समाज आज भी आजाद नहीं हुआ है। हरिजनों पर जुल्म की समस्या पर ‘भवनी भवाई’ और सत्यजीत राय की ‘सद्गति’ एक ही दौर में आई थीं। ‘सद्गति’ के मुकाबले ‘भवनी भवाई’ समस्या को ज्यादा गहराई में जाकर टटोलती है। यह ‘सद्गति’ से ज्यादा धारदार, बेबाक और खरी फिल्म है।

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फसाद के कारण टटोलने की ईमानदार कोशिश
कृष्ण बिहारी नूर ने फरमाया है- ‘जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं/ और क्या जुर्म है पता ही नहीं/ जिसके कारण फसाद होते हैं/ उसका कोई अता-पता ही नहीं।’ केतन मेहता ‘भवनी भवाई’ में फसाद के कारणों का अता-पता लगाने की ईमानदार कोशिश करते हैं। गुजराती नाट्य शैली वाली इस फिल्म में आजादी से पहले की कोई रियासत है। वहां का सनकी राजा (नसीरुद्दीन शाह) मूल समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाने के लिए धूर्त वजीर, रानी और पुरोहित की मदद से तरह-तरह की चालों में लिप्त रहता है। जनता रोटी, कपड़ा और मकान के साथ पानी की समस्या से जूझ रही है। रानी पुत्र को जन्म देती है, तो पुरोहित राजा के कान में फूंक देता है कि पुत्र उसके लिए शुभ नहीं है। राजा के आदेश पर सैनिक पुत्र को संदूक में बंद कर दरिया में बहा देते हैं। निस्संतान हरिजन (ओम पुरी) उसे बेटे की तरह पालता है। कई साल बाद राजा के बेटे के जिंदा होने का पता चलने पर फिर साजिश रची जाती है। सनकी राजा के कान में फूंका जाता है कि बेटे की बलि देने पर रियासत में पानी का स्रोत फूट सकता है। बेटा (मोहन गोखले) अपनी प्रेमिका (स्मिता पाटिल) के साथ छिपता फिरता है। आखिर में सैनिक उसे समर्पण के लिए मजबूर कर देते हैं।

हिम्मत, हौसले को कुचलना
‘भवनी भवाई’ में केतन मेहता हरिजनों की तीन पीढिय़ों के संघर्ष को यथार्थवादी ढंग से पर्दे पर उतारते हैं। ताकत वाले लोग न सिर्फ उन्हें कदम-कदम पर अपमानित करते रहे, उनकी हिम्मत, हौसले को भी मुसलसल कुचला जाता रहा। फिल्म में एक हरिजन चोरी-छिपे कुएं से पानी लेने पहुंचता है। पकड़े जाने पर बुरी तरह पिटता है। बतौर निर्देशक इस पहली फिल्म के लिए केतन मेहता को नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया था।

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काफी समय से खामोश हैं केतन मेहता
‘भवनी भवाई’ के बाद केतन मेहता ने लीक से हटकर कुछ और फिल्में बनाईं- ‘होली’ (बतौर नायक आमिर खान की पहली फिल्म), ‘मिर्च मसाला’, ‘सरदार’, ‘मंगल पांडे’, ‘माझी : द माउंटन मैन’ आदि। बीच-बीच में मसाला फिल्में भी उन्हें आवाज देती रहीं। ‘हीरो हीरालाल’, ‘ओह डार्लिंग ये है इंडिया’ और ‘आर या पार’ जैसी बेसिरपैर की फिल्में बनाकर उन्हें न माया मिली, न राम। तीन साल पहले अपनी धारदार शैली पर लौटते हुए उन्होंने सआदत हसन मंटो की कहानी पर शॉर्ट फिल्म ‘टोबा टेक सिंह’ बनाई थी। यह एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाई गई। केतन मेहता काफी समय से खामोश हैं। ऐसे समय में, जब श्याम बेनेगल फिर सक्रिय हुए हैं, केतन मेहता की नई फिल्म के ऐलान का इंतजार है। ‘आर या पार’ नहीं, ‘भवनी भवाई’ या ‘मिर्च मसाला’ जैसा ही कुछ बनाइए जनाब।

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