जब पर्दे पर धड़का राजस्थान
साठ और सत्तर के दशक की कई फिल्मों में सहायक कैमरामैन रहे ईश्वर बिदरी की मुख्य कैमरामैन के तौर पर पहली फिल्म ‘हंसते-खेलते’ (1984) थी, लेकिन उनकी पहचान बनी जे.पी. दत्ता की पहली फिल्म ‘गुलामी’ से। दत्ता ने 1976 में विनोद खन्ना के साथ ‘सरहद’ नाम की जो फिल्म शुरू की थी, उसकी फोटोग्राफी का जिम्मा उन्होंने ईश्वर बिदरी को सौंपा था। किन्हीं कारणों से यह फिल्म नहीं बन सकी। भारत में बेहतरीन फोटोग्राफी वाली जो फिल्में बनी हैं, ‘गुलामी’ उनमें से एक है। राजस्थान की लोकेशंस ‘गुलामी’ से पहले इतनी खूबसूरती से पर्दे पर नहीं उतारी गई थीं। इस फिल्म में अगर रील-दर-रील राजस्थान धड़कता हुआ महसूस होता है और रेत उड़ाते रेगिस्तान वाले दृश्यों से ‘पधारो म्हारा देस’ की गूंज उठती लगती है, तो इसके पीछे ईश्वर बिदरी की लाजबाव फोटोग्राफी का बड़ा हाथ है। जे.पी. दत्ता की ‘यतीम’, ‘हथियार’, ‘बटवारा’ में भी राजस्थान और ईश्वर बिदरी के कैमरे की जुगलबंदी ने पर्दे पर माहौल की धड़कनें उतार दीं।
लगातार एंगल बदलता कैमरा
‘गुलामी’ से ‘बॉर्डर’ तक (बीच में ‘क्षत्रिय’ को छोड़कर) जे.पी. दत्ता की तमाम फिल्मों की फोटोग्राफी का जिम्मा ईश्वर बिदरी ने संभाला। राजकुमार संतोषी के भी वे पसंदीदा फोटोग्राफर रहे। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे कैमरे के एंगल से मामूली सीन को भी गैर-मामूली बना देते थे। मसलन ‘गुलामी’ के गीत ‘मेरे पी को पवन किस गली ले चली’ के फिल्मांकन के दौरान उनका कैमरा लगातार एंगल बदलता रहता है। इससे एक्शन कम होते हुए भी पर्दे पर ज्यादा लगता है। रेगिस्तानी इलाके से गुजरती ट्रेन और पीछे छूटते किरदार अविश्वसनीय या अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं लगते।
‘जूम’ और ‘ट्रॉली शॉट्स’ पर भी जबरदस्त पकड़
एंगल के साथ-साथ ‘जूम’ और ‘ट्रॉली शॉट्स’ पर भी ईश्वर बिदरी की जबरदस्त पकड़ थी। वे जानते थे कि पर्दे पर किसी दृश्य को ‘स्पेक्टेक्युलर’ (भव्य) कैसे बनाया जाता है। ज्यादातर फिल्मों में वे लम्बे-लम्बे शॉट्स रखते थे, जिनमें कैमरा स्थिर रहने के बजाय दाएं-बाएं घूमता रहता था। इससे छोटा माहौल भी पर्दे पर खुला-खुला लगता था। उनकी इसी तकनीक ने ‘बॉर्डर’, ‘अंदाज अपना-अपना’, ‘घातक’, ‘अंगार’, ‘वंश’, ‘दामिनी’ आदि में कमाल के दृश्य रचे। ‘दामिनी’ में रात के उस सीन में उनके कैमरे का यह कमाल चरम पर रहा, जिसमें ‘ढाई किलो के हाथ’ वाले सनी देओल की एंट्री होती है।