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इंदिरा नहर से पहले के राजस्थान की झांकी दिखाने वाली ‘Do Boond Pani’ के 50 साल

पानी के संकट पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने 1971 में बनाई थी फिल्म
नेशनल अवॉर्ड जीता, लेकिन सिनेमाघरों में ज्यादा नहीं चल पाई
फरहाद की तरह पहाड़ तोड़ कर नहर गांव तक लाया नायक

Jan 06, 2021 / 12:54 am

पवन राणा

इंदिरा नहर से पहले के राजस्थान की झांकी दिखाने वाली 'Do Boond Pani' के 50 साल

इंदिरा नहर से पहले के राजस्थान की झांकी दिखाने वाली ‘Do Boond Pani’ के 50 साल

-दिनेश ठाकुर
कैसर-उल-जाफरी का शेर है- ‘कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो/ शबनम का कतरा भी जिनको दरिया लगता है।’ किसी जमाने में यह राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों की हकीकत थी। इन इलाकों में रहने वालों को ‘शबनम का कतरा’ (ओस की बूंद) भी दरिया महसूस होता था। यह वह जमाना था, जब इंदिरा नहर पंजाब से पानी लेकर राजस्थान नहीं पहुंची थी। बारिश की कम मेहरबानी से रेगिस्तानी इलाके अकाल से जूझते थे। पानी के लिए लोगों को मीलों दूर भटकना पड़ता था। दूध तो मयस्सर था, पानी मृग मरीचिका की तरह था। राजस्थान के इन इलाकों की कारुणिक दशा पर लेखक-फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ( Khwaja Ahmad Abbas ) ने 1971 में ‘दो बूंद पानी’ ( Do Boond Pani Movie ) बनाई। यह फिल्म 2021 में प्रदर्शन के 50 साल पूरे कर रही है।

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कथा-पटकथा के मोर्चे पर कमजोर
हालांकि फिल्म नेशनल अवॉर्ड ( National Award ) जीतने में कामयाब रही, दर्शकों का दिल नहीं जीत पाई। वह राजेश खन्ना ( Rajesh Khanna ) का तूफानी दौर था। उनकी फिल्में सिनेमाघरों में 25 से 50 हफ्ते तक जमी रहती थीं। जलाल आगा (Jalal Agha ), सिमी ग्रेवाल ( Simi Garewal ), किरण कुमार (यह इनकी पहली फिल्म थी) और मधु छंदा जैसे कलाकारों वाली ‘दो बूंद पानी’ एक हफ्ते बाद सिनेमाघरों से विदा हो गई थी। नेक इरादों से बनाई गई यह फिल्म निर्देशन, कथा-पटकथा के मोर्चे पर कमजोर थी। ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी कहानियों को पर्दे पर पेश करने में अक्सर मात खाई। उनकी ज्यादातर फिल्में कथा-चित्र और वृत्त-चित्र के बीच झूलती नजर आती हैं। यानी न मुकम्मल कथा-चित्र लगती हैं, न वृत्त-चित्र। ‘शहर और सपना’, ‘बम्बई रात की बाहों में’, ‘सात हिन्दुस्तानी’ की तरह ‘दो बूंद पानी’ इसी तरह की त्रिशंकु फिल्म है।

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शीरीं-फरहाद और रानी पद्मिनी के प्रसंग
अपनी बात कहने के लिए ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे प्रगतिशील लेखक ने ‘दो बूंद पानी’ में शीरीं-फरहाद और रानी पद्मिनी के प्रसंगों के साथ-साथ ‘थूं पी-थूं पी’ (पानी मिलने पर प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से पहले पीने की मनुहार कर रहे हैं) जैसे कल्पित किस्सों का सहारा लिया, लेकिन बात नहीं बनी। फिल्म के नायक का फरहाद की तरह बालू का पहाड़ तोड़ कर नहर गांव तक पहुंचाना भी घोर बनावटी रहा।


जयदेव का संगीत एकमात्र रोशन पहलू
‘दो बूंद पानी’ का एकमात्र रोशन पहलू है जयदेव का मन मोहने वाला संगीत। राजस्थानी लोक धुनों पर आधारित दो गाने निहायत मीठे हैं- ‘जा री पवनिया पिया के देस जा’ (आशा भौसले) और ‘पीतल की मोरी गागरी’ (परवीन सुलताना, मीनू पुरुषोत्तम)। दोनों कैफी आजमी ने लिखे थे। एक गीत के अंतरे में वे लिखते हैं, ‘सन-सन सन-सन हवा करे जब गगरी डूबे पानी में/ अपना मुखड़ा नया लगे, हम जब-जब देखें पानी में।’ फिल्मी गीतों में अब ऐसी सरस शब्दावली और उपमाएं हवा हो चुकी हैं।

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