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दादा साहब फाल्के: पत्नी बनाती थी 500 लोगों का खाना, रेड लाइट एरिया में की अभिनेत्री की खोज

दो महीने के अंदर उन्होंने शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देख डाली

Apr 30, 2018 / 02:13 pm

Mahendra Yadav

Dadasaheb phalke

Dadasaheb phalke

वर्ष 1910 में मुंबई में फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों की भीड़ में एक ऐसा शख्स भी था जिसे फिल्म देखने के बाद अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया। लगभग दो महीने के अंदर उन्होंने शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देख डाली और निश्चय कर लिया वह फिल्म निर्माण ही करेगा। यह शख्स और कोई नहीं भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के थे। दादा साहब फाल्के का असली नाम धुंधिराज गोविन्द फाल्के था। उनका जन्म महाराष्ट्र के नासिक के निकट त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 में हुआ था। वर्ष 1885 में उन्होंने जे.जे.कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला ले लिया। उन्होंने बड़ौदा के मशहूर कलाभवन में भी कला की शिक्षा हासिल की। इसके बाद उन्होंने नाटक कंपनी में चित्रकार के रूप में काम किया।
दोस्त से रुपए उधार लेकर गए लंदन:
वर्ष 1903 में वह पुरात्तव विभाग में फोटोग्राफर के तौर पर काम करने लगे। कुछ समय बाद दादा साहब फाल्के का मन फोटोग्राफी में नहीं लगा और उन्होंने निश्चय किया कि वह बतौर फिल्मकार अपना कॅरियर बनाएंगे। इसी सपने को साकार करने के लिये वर्ष 1912 में वह अपने दोस्त से रुपये लेकर लंदन चले गये। लगभग दो सप्ताह तक लंदन में फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने के बाद वह फिल्म निर्माण से जुड़े उपकरण खरीदने के बाद मुंबई लौट आये। मुंबई आने के बाद दादा साहब फाल्के ने ‘फाल्के फिल्म कंपनी’ की स्थापना की और उसके बैनर तले ‘राजा हरिश्चंद्र’नामक फिल्म बनाने का निश्चय किया। इसके लिए फाइनेंसर की तलाश में जुट गये। इस दौरान उनकी मुलाकात फोटोग्राफी उपकरण के डीलर यशवंत नाडकर्णी से हुई जो दादा साहब फाल्के से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने उनकी फिल्म का फाइनेंसर बनना स्वीकार कर लिया। फिल्म निर्माण के क्रम में दादा साहब फाल्के को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
अभिनेत्री के किरदार के लिए की महिला की तलाश:
दादा साहब फाल्के चाहते थे कि फिल्म में अभिनेत्री का किरदार कोई महिला ही निभाये लेकिन उन दिनो फिल्मों में महिलाओं का काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। उन्होंने रेड लाइट एरिया में भी खोजबीन की लेकिन कोई भी महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई। बाद में उनकी खोज एक रेस्ट्रारेंट में बावर्ची के रूप में काम करने वाले व्यक्ति सालुंके पर जाकर पूरी हुयी ।
पत्नी ने की मदद:
फिल्म के निर्माण के दौरान दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनकी काफी सहायता की। इस दौरान वह फिल्म में काम करने वाले लगभग पांच सौ लोगो के लिये खुद खाना बनाती और उनके कपड़े धोती । फिल्म के निर्माण में लगभग 15 हजार रुपये लगे जो उन दिनो काफी बड़ी रकम थी। आखिरकार वह दिन आ ही गया जब फिल्म का प्रदर्शन होना था। तीन मई 1913 में मुंबई के कोरनेशन सिनेमा में फिल्म पहली बार दिखाई गयी। लगभग 40 मिनट की इस फिल्म को दर्शकों का अपार सर्मथन मिला। फिल्म टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई।
उनकी फिल्में भक्ति भावना से सराबोर:
दादा साहब फाल्के ने 1914 में लंका दहन, 1918 में श्री कृष्ण जन्म और 1919 में कालिया मर्दन जैसी सफल धार्मिक फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों का सुरूर दर्शकों के सिर चढ़कर बोला। इन फिल्मों को देखते समय लोग भक्ति भावना में सराबोर जाते थे। फिल्म लंका दहन के प्रदर्शन के दौरान श्रीराम और कालिया मर्दन के प्रर्दशन के दौरान श्री कृष्ण जब पर्दे पर अवतरित होते थे तो सारे दर्शक उन्हें दंडवत प्रणाम करने लगते।
दुखी होकर फिल्मों से लिया सन्यास:
1920 के दशक में दर्शकों का रूझान धार्मिक फिल्मों से हटकर एक्शन फिल्मों की ओर हो गया जिससे दादा साहब फाल्के को गहरा सदमा पहुंचा। फिल्मों में व्यावसायिकता को हावी होता देखकर अंतत: उन्होंने वर्ष 1928 में फिल्म इंडस्ट्री से सन्यास ले लिया। हालांकि वर्ष 1931 में प्रदर्शित फिल्म सेतुबंधम के जरिये उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में वापसी की कोशिश की लेकिन फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई।
100 फिल्मों का निर्देशन:
दादा साहब फाल्के ने अपने तीन दशक लंबे सिने करियर में लगभग 100 फिल्मों का निर्देशन किया। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म ‘गंगावतारम’ दादा साहब फाल्के के सिने कॅरियर की अंतिम फिल्म साबित हुई। फिल्म टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई जिससे दादा साहब फाल्के को गहरा सदमा लगा और उन्होंने सदा के लिये फिल्म निर्माण छोड़ दिया। लगभग तीन दशक तक अपनी फिल्मों के जरिये दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले महान फिल्मकार दादा साहब फाल्के बड़ी ही खामोशी के साथ नासिक में 16 फरवरी 1944 को इस दुनिया से सदा के लिये विदा हो गये ।

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