बात 1981 की है। उदयपुर में रिचर्ड एटनबरो ( Richard Atenbaro ) की ‘गांधी’ ( Gandhi Movie ) की शूटिंग चल रही थी। एटनबरो, बेन किंग्सले ( Ben Kingsly ), रोहिणी हट्टंगड़ी ( Rohini Hattangadi ) और भानु अथैया ( Bhanu Athaiya ) गपशप में मशगूल थे। महात्मा गांधी का किरदार अदा कर रहे ब्रिटिश अभिनेता किंग्सले ने भानु अथैया से मजाक में कहा- ‘आपने मेरे लिए मोटे कपड़े का जो परिधान तैयार किया है, कभी-कभी बहुत चुभता है।’ भानु ने जवाब दिया- ‘यह भारतीय खादी है जनाब, आपको गर्व होना चाहिए कि आप इसे पहन रहे हैं, इसीलिए गांधी लग रहे हैं।’ हाजिर जवाब भानु अथैया की कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग कला को भले ‘गांधी’ नेे अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां अता की हों, भारतीय सिनेमा काफी पहले उनका कायल हो चुका था। गुरुदत्त, राज कपूर, राज खोसला, विजय आनंद, बी.आर. चोपड़ा, यश चोपड़ा आदि की कई फिल्मों को उन्होंने खास कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग से सजाया।
हिन्दी फिल्मों के लिए भी किया जाएगा याद
गुरुवार को दुनिया से कूच करने वालीं भानु अथैया ने फिल्मों में भारतीय परिधानों की गरिमा बढ़ाने के साथ-साथ इन्हें विदेशों में भी विशिष्ट पहचान दी। उन्हें सिर्फ ‘गांधी’ के लिए ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय हस्ती के तौर पर ही नहीं, उन दर्जनों हिन्दी फिल्मों के लिए भी याद किया जाएगा, जिनमें किरदारों के परिधानों से उनके विस्तृत अध्ययन, अनूठे शिल्प और गहरी नजर की भरपूर झलक मिलती है। गुरुदत्त की ‘सीआईडी’ (1956) से उन्होंने फिल्मों में कदम रखा। गुरुदत्त उन्हें ‘शाश्वत सुदीप्ता’ (हमेशा जगमगाने वाली) कहते थे। उनकी ‘प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘चौदहवीं का चांद’ तथा ‘साहिब बीवी और गुलाम’ के कॉस्ट्यूम भानु अथैया ने ही डिजाइन किए। भारतीय नारी की आभा में गहने नहीं, परिधान चार चांद लगाते हैं, यह भानु अथैया ने ‘आम्रपाली’ (वैजयंतीमाला), ‘गाइड’ (वहीदा रहमान), ‘काजल’ (मीना कुमारी), ‘मेरा साया’ (साधना), ‘ब्रह्मचारी’ (मुमताज), ‘महबूबा’ (हेमा मालिनी), ‘घर’ (रेखा) और ‘लेकिन’ (डिम्पल कपाडिया) समेत कई फिल्मों में साबित किया।
रखती थीं कहानी के परिवेश और किरदारों का विशेष ध्यान
भानु अथैया ने भारत के विभिन्न राज्यों के पारंपरिक परिधानों का गहन अधय्यन किया। किसी फिल्म के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइन करते वक्त वे कहानी के परिवेश और किरदारों का विशेष ध्यान रखती थीं। यह नहीं कि कहानी गुजरात की पृष्ठभूमि वाली है और किरदार पंजाबी परिधान में घूम रहे हैं, जैसा मुम्बई की ज्यादातर फिल्मों में होता है। उनकी यह सूझ-बूझ ‘वक्त’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘मेरा नाम जोकर’,’शालीमार’, ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘प्रेम रोग’, ‘निकाह’, ‘रजिया सुलतान’, ‘चांदनी’, ‘हिना’, ‘1942- ए लव स्टोरी’, ‘स्वदेश’ आदि फिल्मों के कॉस्ट्यूम्स में रील-दर-रील परिलक्षित हुई।
ऑस्कर ट्रॉफी अकादमी के मुख्यालय में रखवा दी
भानु अथैया को ‘लेकिन’ और ‘लगान’ के लिए नेशनल अवॉर्ड के अलावा फिल्मफेयर के लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा गया। शांति निकेतन में रविंद्रनाथ टैगोर के नोबेल प्राइज की चोरी के बाद वे अपनी ऑस्कर की ट्रॉफी की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित थीं। जब कोई और सूरत नजर नहीं आई, तो 2012 में उन्होंने यह ट्रॉफी ऑस्कर अकादमी के लॉस एंजिल्स मुख्यालय में रखवा दी। भानु की उपलब्धियों से भरपूर पारी 2015 तक जारी रही। आखिरी बार उन्होंने मराठी फिल्म ‘नागरिक’ के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की। दिमाग के कैंसर के कारण वे पांच साल से फिल्मों से दूर थीं।
भारतीय कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की सम्मानीय हस्ती
‘गांधी’ के कई साल बाद आमिर खान की ‘लगान’ में भानु अथैया ने ग्रामीण भारतीयों के साथ-साथ कई किरदारों के लिए विलायती परिधान निहायत सूझ-बूझ से डिजाइन किए। कॉस्ट्यूम के मामले में यह फिल्म देशी-विदेशी परिधानों की मनोहर प्रदर्शनी जैसी है। रिचर्ड एटनबरो ने अपनी आत्मकथा में भानु अथैया का जिक्र करते हुए उन्हें ‘भारतीय कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की सम्मानीय हस्ती’ बताया। आम तौर पर सिनेमा के पर्दे के पीछे के कलाकार सुर्खियों से वंचित रह जाते हैं। भानु अथैया अपवाद थीं। सुर्खियां उनके इर्द-गिर्द परिक्रमा करती थीं।