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किसी से तुलना नहीं, खुद अपनी मिसाल
जैसे ताजमहल की तुलना किसी दूसरे महल से, एफिल टावर की किसी दूसरे टावर से या नियाग्रा जल-प्रपात की किसी दूसरे जल-प्रपात से नहीं की जा सकती, उसी तरह आशा भोसले की तुलना किसी दूसरी गायिका से नहीं की जा सकती। वह खुद अपनी मिसाल हैं। कहा जाता है कि बरगद के तले कोई पेड़-पौधा नहीं पनपता। आशा भोसले ने इसे झुठला दिया। बड़ी बहन लता मंगेशकर अगर बरगद हैं, तो आशा जी उनसे कमतर नहीं हैं। सुरों की दुनिया में उन्होंने अलग पहचान बनाई। भजन हो (हे रोम-रोम में बसने वाले राम) या दार्शनिक गीत (तोरा मन दर्पण कहलाए), बेफिक्री (दम मारो दम) हो या शोखी (आओ हुजूर तुमको सितारों में ले चलूं), उदासी हो (चैन से हमको कभी आपने जीने न दिया) या उल्लास (आज कोई प्यार से दिल की बातें कह गया), उन्होंने हर मनोदशा को मन मोहने वाली सुरीली अभिव्यक्ति दी। उनका धूम-धड़ाके वाला ‘जब छाए मेरा जादू कोई बच न पाए’ उनकी हस्ती की सटीक तर्जुमानी करता है। वह कुदरत का ऐसा करिश्मा हैं, जिसे कुदरत भी नहीं दोहरा सकी।
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गीतों के हिसाब से बदलती आवाज
आशा भोसले ने उस जमीन पर अपने लिए रास्ता बनाया, जिस पर गीता दत्त और शमशाद बेगम सरीखी दिग्गज गायिकाएं जमी हुई थीं। आगे चलकर इस जमीन पर सिर्फ और सिर्फ आशा भोसले की हुकूमत रही। वह अपनी आवाज को गीतों के हिसाब से बदलने में माहिर रहीं। यह आवाज फूल की पंखुड़ी की तरह नरम (अभी न जाओ छोड़कर) भी हो सकती है, तो बादलों में कड़कती बिजली की तरह तेज भी (कोमल है कमजोर नहीं तू, शक्ति का नाम ही नारी है)। वह इस मामले में खुशनसीब रहीं कि उनके हिस्से में ‘जब चली ठंडी हवा’, ‘आगे भी जाने न तू’, ‘जिंदगी इत्तफाक है’, ‘जाइए आप कहां जाएंगे’, ‘परदे में रहने दो’ जैसे गाने ज्यादा से ज्यादा आए। इन गानों ने उन्हें लता मंगेशकर की कॉपी बनने से बचाया।
महसूस होने लगा उम्र का कंपन
आशा भोसले 87 साल की हो चुकी हैं। उनकी आवाज फिल्मों के बजाय अब म्यूजिक शो में ज्यादा सुनाई देती है। उम्र का कंपन आवाज में महसूस होने लगा है, लेकिन अब भी यह आवाज आजकल की उन आवाजों से लाख बेहतर है, जिन्हें सुर में लाने के लिए कम्प्यूटर का सहारा लेना पड़ता है। कम्प्यूटर से आवाज तो सेट की जा सकती है, वह प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता, जो किसी सिद्ध गायक या गायिका के गले से झरने की तरह फूटता है।