बगैर किसी ‘पेटा’ के सांपों और बिल्लियों तक को यहां धाार्मिक संरक्षण मिला है। ऐसे में जाहिर है हमें ‘क्रूर’ बनाने के लिए पश्चिम को ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है।
विनोद अनुपम, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, प्राप्त कला समीक्षक
डिस्कवरी चैनल की एक सीरीज हम सबके नास्टेलजिया में होगी, ‘मैन वर्सेज वाइल्ड’, एक अकेला व्यक्ति जंगल की विकट परिस्थिति में खाली हाथ बगैर किसी साधन के किस तरह अपने आपको बचाए रखता है, इसकी जीवंत प्रस्तुति है यह धाारावाहिक। इस बचाए रखने में जाहिर है उसे जंगली जड़-मूल भी खाने पड़ रहे हैं, घास पत्ते भी और मछलियां या जानवरों के मांस भी। यह उसके जिंदा रहने की शर्त है, शायद इसीलिए इसमें कहीं भी क्रूरता का बोध नहीं होता था। इसके ठीक विपरीत ओटीटी के डिस्कवरी प्लस पर आए ‘रियलिटी रानीज आफ दिस जंगल’ में जिस तरह से सेलिब्रटी ‘बकरी का भेजा’ मजे ले ले कर चबाते दिखते हैं, यह सिवा क्रूरता के और कुछ नहीं कहा जा सकता।
डच शो ‘एक्टे मीसजेस इन द जंगल’ के इस भारतीय संस्करण में टीवी के अलग अलग रियलिटी शो के 12 जाने पहचाने चेहरे हैं। शुरुआत में ही होस्ट आदेश देता है और एक एक कर मछली, मुर्गे के पंजे और लिवर, फिर बकरी की आंखें और भेजा कच्चे ही खाने की प्रतियोगिता शुरु होती है। अपनी प्लेट सबसे जल्दी खत्म करने वाले को कैप्टन चुना जाना है, सो वे मुर्गे के पंजे जैसे अखाद्य मुंह में ठूंस कर गटक रहे हैं। लेकिन शायद भारतीय दर्शकों की ‘प्रौढ़’ होती मानसिकता ही है कि उन्हें हैरत नहीं होती। हैरत यह देखकर भी नहीं होती, जब सेलिब्रेटी कथित भोजन गटकने के बाद विजयी मुद्रा में खाने की विवेचना करते हैं। किसी जीव की आंखें खाने से अधिक विभत्स आंखें खाने का विवरण होता है। यदि दृश्य श्रव्य माध्यम का वाकई कोई प्रभाव है, तो क्या ‘रियलिटी रानीज आफ दिस जंगल’ की क्रूरता से हमें डरने की जरूरत नहीं? यह सामान्य खेल नहीं, सामान्य मांसाहार नहीं, यह क्रूरता को सहज स्वीकार्य बनाती है। यह स्थापित करती है कि धरती पर उपलब्ध हरेक जीव और हरेक जीव के हरेक अंग हमारे खाने के लायक हैं, एक सेलिब्रेटी तो कहती भी है, मुझे क्या मैं तो सबकुछ खा सकती हूं।
आश्चर्य होता है जब इस क्रूरता पर कोई ‘पेटा’ विचलित नहीं होती है। ‘रंग दे बसंती’ जैसे फिल्म में पंजाब के एक लोकोत्सव को फिल्माते हुए घोड़े के इस्तेमाल पर सारे प्राणी प्रेमी बेचैन हो गए थे, यहां तक कि फिल्म से वह दृश्य हटाना पड़ जाता है। जल्लीकट्टू जैसी परंपरा को हर साल विरोध का सामना करना पडता है। दूध का इस्तेमाल तक उन्हें हिंसक लगता है, लेकिन किसी जीव की आंखें और लिवर खाद्य सामग्री के रूप में प्रस्तुत किए जाने पर उन्हें आपत्ति नहीं होती, प्राणी संरक्षण की अद्भुत समझ है यह, जिसने भारत में भी घरेलु कीटनाशकों के विज्ञापनों को हिंसक बनाते जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस तरह से कोने-कोने में छिपे काकरोचों, को मारकर एक घरेलू महिला विजयी भाव से मुस्कुराती है, कहीं न कहीं प्राणियों के प्रति हमारे परंपरागत अहिंसक व्यवहार को चुनौती देती लगती है। कीटनाशकों के विज्ञापनों में अब उसे भगाने की बात नहीं कही जाती, मारने की बात कही जाती है। चूहों चीटियों काकरोचों के बगैर हम भारतीय रसोई की कल्पना नहीं कर सकते ये हमारे जीवन के अंग रहे हैं। हमें इनके साथ जीने की आदत रही है। बगैर किसी ‘पेटा’ के सांपों और बिल्लियों तक को यहां धाार्मिक संरक्षण मिला है। ऐसे में जाहिर है हमें ‘क्रूर’ बनाने के लिए पश्चिम को ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है।
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