ऐतिहासिक दस्तावेजों में चाणक्य की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं कि वह लम्बे, पैनी आंखों वाले और गंजे थे। इस हुलिए के अनुरूप किरदार में उतरने के लिए मुमकिन है अजय देवगन को कुछ अर्से के लिए बालों का मोह तजना पड़े। वर्ना विशेष मेक-अप का विकल्प तो है ही, जिसका सहारा 40 साल पहले दिलीप कुमार ने लिया था। अस्सी के दशक में निर्देशक बी.आर. चोपड़ा ‘चंद्रगुप्त और चाणक्य’ नाम से जो फिल्म बना रहे थे, उसमें दिलीप कुमार को चाणक्य का किरदार सौंपा गया था। उन्हें गंजा दिखाने के लिए लंदन से विशेष विग मंगवाई गई।
शूटिंग के दौरान उन्हें यह विग पहनाने में करीब तीन घंटे खर्च होते थे और 30 मिनट इसे उतारने में लगते थे। करीब ढाई लाख रुपए की ऐसी कई विग मंगवानी पड़ी थीं, क्योंकि एक विग को एक बार ही इस्तेमाल किया जा सकता था। भारी-भरकम बजट वाली इस फिल्म में चंद्रगुप्त का किरदार धर्मेंद्र अदा कर रहे थे। हेमा मालिनी, शम्मी कपूर, परवीन बॉबी और विजयेंद्र बाकी कलाकारों में शामिल थे। उन्हीं दिनों कमाल अमरोही ‘रजिया सुलतान’ बना रहे थे। यह फिल्म तो 1983 में सिनेमाघरों में पहुंच गई, लेकिन ‘चंद्रगुप्त और चाणक्य’ की शूटिंग बीच में ऐसी अटकी कि फिर कभी शुरू नहीं हो सकी। अस्सी के दशक में ही निर्देशक ओ.पी. रल्हन ने ‘अशोका द ग्रेट’ बनाने का ऐलान किया था। यह फिल्म भी नहीं बन सकी। टिकट खिड़की पर ‘रजिया सुलतान’ के कमजोर प्रदर्शन की वजह से कुछ साल पीरियड फिल्मों के क्षेत्र में सन्नाटा रहा। चाणक्य पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी दूरदर्शन के लिए यादगार धारावाहिक बना चुके हैं, जो 1991-92 के दौरान प्रसारित हुआ था। इसमें चाणक्य का किरदार खुद उन्होंने अदा किया था। इन दिनों वह अक्षय कुमार के साथ पीरियड फिल्म ‘पृथ्वीराज’ बना रहे हैं।
पीरियड फिल्में हर दौर में बनती रही हैं। सोहराब मोदी की ‘पुकार’ (1939) की कामयाबी के बाद ऐसी फिल्मों की झड़ी लग गई थी- ‘हुमायूं’, शाहजहां, सिकंदर, हलाकू, चंगेज खान, अनारकली, नूरजहां, झांसी की रानी, बाबर, ‘सिकंदर’ वगैरह-वगैरह। इनमें से कोई ‘पुकार’ जैसी कामयाबी हासिल नहीं कर सकी। फिर 1960 में आई के. आसिफ की ‘मुगले-आजम’, जिसने न सिर्फ ऐतिहासिक फिल्मों को अलग चेहरा दिया, बल्कि नए कारोबारी रेकॉर्ड भी बनाए। इसे आज भी भारतीय ‘टेन कमांडेंट्स’ कहा जाता है, क्योंकि इसके बाद ऐसी कोई पीरियड फिल्म नहीं बनी, जो फिल्म-विधा के हर मोर्चे पर इतनी खरी उतरी हो। फिल्म तकनीक साठ के दशक में आज की तरह समृद्ध नहीं थी, फिर भी ‘मुगले-आजम’ ने भव्य सेट्स, युद्ध के दृश्य, गीत फिल्मांकन, आलीशान शीशमहल, संवादों की घन-गरज, मधुर संगीत और लाजवाब अदाकारी (दिलीप कुमार, मधुबाला, पृथ्वीराज कपूर) के दम पर भारतीय सिनेमा की धाक दुनियाभर में जमा दी। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म की ऐतिहासिक कामयाबी इस बात की सनद है कि किसी फिल्म में जान फूंकने के लिए तकनीक नहीं, लगन, जुनून, खास नजरिया और जोश जरूरी है। इन्हीं के दम पर के. आसिफ को एक फिल्म ने ही अमर कर दिया।