पूर्वी लद्दाख की सरहद पर मंडरा रहा जंग का खतरा टल गया है। दस महीने से एक-दूसरे की आंखों में आंखें डालकर खड़ी भारत और चीन की फौज सुलह के बाद पीछे हट रही है। साहिर लुधियानवी की रूह सुकून महसूस कर रही होगी। उन्होंने अपनी नज्म ‘जंग’ में पूछा था- ‘बरतरी (श्रेष्ठता) के सबूत की खातिर/ खूं बहाना ही क्या जरूरी है/ घर की तारीकियां (अंधेरे) मिटाने को/ घर जलाना ही क्या जरूरी है?’ चीन ने 1962 में धोखे से घर जलाने का जो खेल खेला था, भारत उसकी कसक भूला नहीं है। यह कसक समय-समय पर फिल्मों में भी जाहिर होती रही है। फिल्मकार महेश मांजरेकर ने ‘1962 : द वॉर इन द हिल्स’ ( 1962 the war in the hills ) नाम से वेब सीरीज तैयार की है। यह 26 फरवरी को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ रही है।
वो 3,000, हम 150
यह वेब सीरीज मेजर सूरज सिंह और उनके साथी फौजियों की बहादुरी के किस्से सुनाएगी। चीन ने 1962 में लद्दाख की गलवान घाटी में अचानक हमला किया था। भारतीय फौज जंग के लिए तैयार नहीं थी। फिर भी करीब 150 भारतीय फौजियों ने तीन हजार से ज्यादा चीनी फौजियों से डटकर लोहा लिया। सीरीज में मेजर सूरज सिंह का किरदार अभय देओल ने अदा किया है। माही गिल भी अहम किरदार में होंगी।
भारत-चीन की जंग पर पहली फिल्म
भारत-चीन की जंग पर पहली फिल्म ‘हकीकत’ (1964) चेतन आनंद ने बनाई थी। बाद में ‘ट्यूबलाइट’, ‘पलटन’ और ‘सूबेदार जोगिन्दर सिंह’ जैसी कुछ और फिल्में बनीं। कथानक और सम्पूर्ण प्रस्तुति के लिहाज से ब्लैक एंड व्हाइट ‘हकीकत’ इसलिए क्लासिक का दर्जा रखती है कि यह जंग के पसमंजर में इंसानी रिश्तों और भावनाओं को तरजीह देती है। अपने फौजियों की बहादुरी का गुणगान करना जंग पर बनी हर फिल्म की बुनियादी लय होता है। ‘हकीकत’ इसके साथ-साथ इस तथ्य को भी गहराई से रेखांकित करती है कि एक इंसान से असीमित उम्मीदें जुड़ी होती हैं। जंग के मैदान में चलने वाली गोलियां ऐसी जाने कितनी उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं। ‘हकीकत’ को बलराज साहनी, धर्मेंद्र, विजय आनंद और जयंत की लाजवाब अदाकारी के साथ-साथ मदन मोहन की सुरीली धुनों वाले गीतों के लिए याद किया जाता है। ‘अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो’, ‘होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा’, ‘मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था’ और ‘जरा-सी आहट होती है’ आज 56 साल भी तरो-ताजा लगते हैं।
जंग के मैदान में कॉमेडी भी हुई
अमरीका और रूस ने जंग आधारित ऐसी कई फिल्में बनाई हैं, जो महाकाव्य (एपिक) की तरह हैं। इनमें ‘द लोंगेस्ट डे’, ‘बैटल ऑफ द बल्ज’, ‘गन्स ऑफ नेवरोन’, ‘लिबरेशन’, ‘पैट्टन’, ‘सेविंग प्राइवेट रेयान’, ‘शिंडलर्स लिस्ट’, ‘टू हाफ टाइम्स इन हैल’ आदि शामिल हैं। जंग के मैदान में कॉमेडी पैदा करने की गुंजाइश नहीं होती, लेकिन भारत में ‘जय बांग्लादेश’, ‘जौहर महमूद इन गोवा’ और ‘जौहर इन कश्मीर’ जैसी बचकाना फिल्मों में यह गुंजाइश निकाली गई। मोहन कुमार की ‘अमन’ (1967) और रामानंद सागर की ‘ललकार’ (1972) में जंग को आम फार्मूलों में लपेटकर पेश किया गया। दोनों फिल्मों में ‘आइटम’ तो कई हैं, जंग का असली माहौल नहीं है।