यह विश्वास करने में मुश्किल है कि अभी कुछ दिन पहले चिट्ठियां लिखने -पढ़ने के लिए स्त्रियों को स्कूलों के बंद दरवाजे खोले गए थे और वहां उनकी डरी संकुची रत्तीभर उपस्थिति ने ही संभावनाओं के अनगिनत पट खोल डाले।आज उसी स्त्री ने साहित्य और कला से लेकर विज्ञान के नाना क्षेत्रों में कीर्तिमान अपने कृतिमान रच दिए। अब वह सिर्फ करुणा या दया की प्रतिमूर्ति श्रद्धा भर नहीं, एक ऐसी सहकर्मी है जिसने अपनी मुनासिब जगह अपने आप बनायी है।
विकास की इस मंजिल की ओर बढ़ती स्त्री को आज भी अनेक दुश्वारियों के बीच रहना और जीना पड रहा है। उससे यह आम अपेक्षा की जाती है कि वह एक साथ कई शताब्दियों में जीती रहे।घर के भीतर उससे मध्यकालीन स्वरूप की अपेक्षा की जाती है तो कार्यस्थल पर उस कमनीय जादुई डेढ़ इंच मुस्कान की,जो गाहे- बगाहे सहकर्मी पुरुष अहंकार के रास्ते में रोड़ा न बनने पाए वरना….।
प्रसिद्ध लेखिका उषा प्रियंवदा की एक अचर्चित सी कहानी है “आधा शहर”। यह कहानी विश्वविद्यालय की एक स्त्री प्रोफेसर की कहानी है।विश्वविद्यालय का माहौल,जहां समाज की यह स्वाभाविक अपेक्षा बनी हुई है कि वहां समाज के सबसे पढ़े- लिखे और संवेदनशील लोग रहते हैं, लेकिन वहीं कहानी की नायिका तमाम तरह के कलुषितअफवाहों का जघन्यतम शिकार होती चली जाती है।कामकाजी महिलाओं के अकेलेपन की एक बेजोड़ कहानी है “आधा शहर”।
ऐसे ही तमाम मुश्किलातों के बीच चुपचाप रहकर असहनीय सन्नाटे और अकेलेपन का दंश झेलती आज की स्त्री लगातार अपनी पहचान खोज रही है। -डॉ.गौरी त्रिपाठी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग
गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय
बिलासपुर, छत्तीसगढ़