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करीब डेढ़ दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद भी बासागुड़ा गांव आज भी आबाद और बाजार गुलजार नहीं हो पाया है। इस बीच साल 2018 में सत्तासीन भाजपा को दरकिनार कर बासागुड़ा समेत बीजापुर वि.स. में कांग्रेस सत्तासीन हुई जरूर, लेकिन सरकारें बदली, प्रतिनिधित्व के मुखौटै बदले जरूर, लेकिन बदली नही ंतो बासागुड़ा के बाशिंदों की तकदीरें।
करीब डेढ़ दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद भी बासागुड़ा गांव आज भी आबाद और बाजार गुलजार नहीं हो पाया है। इस बीच साल 2018 में सत्तासीन भाजपा को दरकिनार कर बासागुड़ा समेत बीजापुर वि.स. में कांग्रेस सत्तासीन हुई जरूर, लेकिन सरकारें बदली, प्रतिनिधित्व के मुखौटै बदले जरूर, लेकिन बदली नही ंतो बासागुड़ा के बाशिंदों की तकदीरें।
यह भी पढ़ें : Bastar Dussehra festival 2023 : नौ दिनों तक गड्ढे में बैठकर करेंगे साधना तब बनेंगे जोगी मूलत: कृषि बाहुल्य इस इलाके में आज भी एक चक्रीय फसल पर कृषक निर्भर हैं। गांव को बैलाडिला की पहाड़ियों से निकलने वाली तालपेरू नदी दो भाग में विभाजित करती है, तालपेरू पर सिंचाई के लिए बांध और नहर की मांग पर मौजूदा सरकार, विधायक ने कभी गंभीरता नहीं दिखाई। जिसे लेकर मौजूदा सरकार से किसानों की उम्मीदें थी। नतीजतन खरीफ की फसल जोतने वाले किसान दोहरी फसल ना ले पाने की वजह से पड़ोसी राज्य तेलंगाना में मिर्च तोड़ने के लिए मजदूरी करने पलायन को मजबूर हैं।
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गांव के कई मोहल्लों तक पक्की सड़कों का जाल आज तक बुना नहीं गया
वीरान हो चुके बासागुड़ा की व्यथा यही नहीं थमती बल्कि गांव के कई मोहल्लों तक पक्की सड़कों का जाल आज तक बुना नहीं गया। जिसे लेकर ग्रामीणों में रोष व्याप्त है। और तो और गांव का बस प्रतीक्षालय गांव में बनने की बजाए गांव से बाहर एक से डेढ़ किमी दूर, अस्पताल तालपेरू नदी के उस पार, जहां रात बे-रात कोई बीमार पड़ जाए तो सुरक्षा बलों की अनुमति के बिना मरीज को अस्पताल ले जाना मुश्किल, मशहुर साप्ताहिक बाजार में पसरा सन्नाटा सरकारी घोषणाओं का मुंह चिड़ाती नजर आती हैं।
गांव के कई मोहल्लों तक पक्की सड़कों का जाल आज तक बुना नहीं गया
वीरान हो चुके बासागुड़ा की व्यथा यही नहीं थमती बल्कि गांव के कई मोहल्लों तक पक्की सड़कों का जाल आज तक बुना नहीं गया। जिसे लेकर ग्रामीणों में रोष व्याप्त है। और तो और गांव का बस प्रतीक्षालय गांव में बनने की बजाए गांव से बाहर एक से डेढ़ किमी दूर, अस्पताल तालपेरू नदी के उस पार, जहां रात बे-रात कोई बीमार पड़ जाए तो सुरक्षा बलों की अनुमति के बिना मरीज को अस्पताल ले जाना मुश्किल, मशहुर साप्ताहिक बाजार में पसरा सन्नाटा सरकारी घोषणाओं का मुंह चिड़ाती नजर आती हैं।
बहरहाल निकट चुनाव में बीजापुर के बासागुड़ा गांव की व्यथा राजनीतिक दलों के लिए बड़ा चुनावी मुद्दा ना हो, लेकिन स्याहा सच तो यही कि दो दशक से वीरान इस गांव की सुध लेने की जहमत शायद ही मौजूदा या पूर्ववर्ती सरकार ने उठाई हो, अगर उठाई होती तो शायद उनके जख्म आज भी ताजा नहीं होते, जिनके घाव बीस साल बाद भी हरे हैं।