यूनेस्को ने इसलिए दिया ये नाम
ग्वालियर का नाम आए और सिंधिया परिवार का नाम ना आए, ऐसा कैसे हो सकता है? संगीत के रचनात्मक शहर को यूनेस्को ने सिटी ऑफ म्यूजिक का नाम यूं ही नहीं दिया है, इस ऐतिहासिक नगरी को कल्चरल बनाने में सिंधिया परिवार की जितनी अहम भूमिका रही है, उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण ये भी है कि शास्त्रीय संगीत को समृद्ध और उच्च श्रेणी का बनाने में सिंधिया परिवार का सबसे बड़ा योगदान रहा। उन्होंने 1771 में राजधानी दिल्ली पर विजय प्राप्त करते हुए मराठा साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अपनी सैन्य उपलब्धियों के अलावा, वे संगीत के महान परोपकारी और प्रवर्तक थे। सिंधिया परिवार ने ही संगीतकारों को आर्थिक रूप से समर्थन दिया, उन्हें एक ऐसी व्यवस्था को तैयार किया, जहां वे अपनी प्रतिभा को समृद्ध कर सकें।
सिंधिया और संगीत का गहरा कनेक्शन कैसे
संगीतकार और हारमोनियम वादक वैभव कुंटे के अनुसार, ग्वालियर के भैया गणपतराव शिंदे (Ganpatrao Scindia) (1852-1920) भारत में एकल हारमोनियम वादन के अग्रदूत माने जाते थे। स्केल बदलने (षडजा-चलन) और विभिन्न रागों (राग मिश्रण) के संयोजन की तकनीक का उपयोग करते थे। हालांकि हारमोनियम वादकों के लिए ये कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन उन्होंने (Ganpatrao Shinde or Scindia) शास्त्रीय संगीत को एक अलग ही मुकाम दिलाया। शास्त्रीय संगीत की गायन शैलियों में से एक ‘ठुमरी’ में सुधार करते हुए उन्होंने ठुमरी शैली को एकदम नया रूप दे दिया। उनकी इन ठुमरियों को बाद में गौहर जान, मलका जान, मौजुद्दीन, प्यारा साहब जैसे प्रसिद्ध ठुमरी गायकों ने लोकप्रिय बनाया। यही नहीं उन्होंने ठुमरी में हारमोनियम के उपयोग को भी प्रोत्साहित किया। उनके शिष्यों जंगी खान, बशीर खान, बब्बन खान, गिरिजाप्रसाद चक्रवर्ती, श्यामनाथ खत्री ने उनकी वादन शैली का अनुसरण किया।
कहा जाता है कि सिंधिया ने खुद संगीत की शिक्षा ली और महाराजा महादजी सिंधिया के दिनों से अन्य संगीतकारों का समर्थन किया। जिन्हें ‘महान मराठा’ के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने ग्वालियर पर विजय प्राप्त की और इसे 1810 में उनके दत्तक पुत्र महाराजा दौलतराव सिंधिया ने सिंधिया साम्राज्य की राजधानी घोषित किया। तब से ग्वालियर घराने को सिंधिया दरबार द्वारा व्यवस्थित संरक्षण और प्रोत्साहन मिला।
संगीतकार बताते हैं कि जिस तरह से राजा मानसिंह के शासनकाल में ध्रुपद शैली का आविष्कार हुआ, उसी प्रकार सिंधिया के शासनकाल में ख्याल शैली का उदय हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में चार सिंधिया सम्राटों, दौलतराव सिंधिया, जानकोजीराव सिंधिया, जियाजीराव (जयाजीराव) सिंधिया तथा माधवराव (माधो राव) सिंधिया के शासनकाल में ख्याल गायन का पूरी तरह विकसित हो चुका था।
महाराजा जयाजी राव सिंधिया के शासनकाल में ग्वालियर अत्यधिक प्रतिष्ठा वाला उच्च कोटि का राज्य बन गया। उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखने में रुचि थी, उन्होंने उस्ताद हस्सू खां, उस्ताद हद्दू खां के मार्गदर्शन में रियाज किया तथा उस्ताद अमीर खां से सितार वादन सीखा।
ये वही समय था जब महाराजा सिंधिया से संरक्षण प्राप्त करने के लिए देश भर से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ ग्वालियर आने लगे। तुषार पंडित ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संगीत के महान संगीतकार: शंकर पंडित’ में उल्लेख किया है कि ‘ग्वालियर के राजा जयाजी राव (सिंधिया) एक बार उस्ताद हद्दू हस्सू, नाथू खान को जयपुर ले गए। दोनों गायकों ने गायन की एक अद्वितीय कला प्रस्तुत की। उनकी इस प्रस्तुति से राजा और वहां उपस्थित श्रोता हैरान रह गए। बताया जाता है कि तब से ये कहावत मशहूर हो गई कि ‘ग्वालियर सगीत का घर है’।
उस्ताद हस्सू खान के शिष्य पंडित रामकृष्ण बुवा देव और पंडित वासुदेवराव जोशी को ग्वालियर दरबार में संगीत को बढ़ावा देने के लिए महाराजा सिंधिया ने ही दरबारी गायक के रूप में नियुक्त किया था।
बालकृष्ण बुवा इचलकरंजीकर का नाम भी इस कड़ी में जुड़ता है। 1849 में ‘इचलकरंजी’ के पास ‘बेदाग’ नामक एक छोटे से गांव में जन्म लेने वाले इचलकरंजीकर ने पंडित वासुदेवराव जोशी से ग्वालियर घराने की गायन शैली सीखी। बालकृष्ण बुवा इचलकरंजीकर ही थे जो ग्वालियर संगीत घराने को महाराष्ट्र में लाए।
महाराजा जयाजीराव सिंधिया के बेटे महाराजा माधोराव सिंधिया ने संगीतकारों को सहयोग देने की उनकी विरासत को आगे बढ़ाया और ग्वालियर में श्री माधव संगीत विद्यालय नामक संगीत महाविद्यालय की स्थापना की। संगीतकार पंडित भातखंडे की इच्छा थी कि ग्वालियर में उस्ताद तानसेन की समाधि है, इतना पवित्र स्थान होने के कारण वहां संगीत की कला की शिक्षा और प्रशिक्षण देने के लिए एक संस्थान जरूर होना चाहिए। उन्होंने मदद के लिए सिंधिया राज्य के एक कुलीन बलवंतराव भैया साहब सिंधिया से मुलाकात की, वे तत्कालीन स्वर्गीय महाराजा जयाजीराव सिंधिया के पुत्र थे। उनसे आश्वासन लिया कि वे ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा माधो राव सिंधिया को पंडित भातखंडे की बात जरूर कहेंगे।
महाराजा माधोराव सिंधिया बलवंतराव के साथ मुंबई आए हुए थे जिन्होंने उन्हें पंडित भातखंडे के बारे में बताया। पंडित भातखंडे ने स्वयं ग्वालियर के महाराजा से मुलाकात की। महाराजा माधोराव ने इस उस्ताद को मुंबई में अपने शानदार समुद्र महल पैलेस में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया।
उन्होंने मुंबई के फोर्ट क्षेत्र में स्थापित पं. भातखंडे के संगीत महाविद्यालय का दौरा भी किया, ताकि वे इस बारे में अधिक जान सकें कि ‘स्वरलिपि’ का उपयोग करके शिक्षा कैसे दी जा सकती है।
पं. भातखंडे की इच्छा सुनकर महाराजा माधोराव सिंधिया ने ग्वालियर में एक संगीत महाविद्यालय स्थापित करने का मन बना लिया था और फिर पं. भातखंडे को आमंत्रित किया। गणेशोत्सव के बाद महाराजा सिंधिया ने ग्वालियर में संगीत महाविद्यालय की स्थापना की योजना बनाने के लिए एक समिति बनाई। इस समिति ने निर्णय लिया कि ग्वालियर में संगीत महाविद्यालय की स्थापना के साथ ही ग्वालियर के सात संगीतकारों को स्वरलिपि सीखने के लिए मुंबई में पं. भातखंडे के संगीत महाविद्यालय में 30 रुपए प्रतिमाह की छात्रवृत्ति के साथ भेजा जाए।
समिति की सिफारिशों के अनुसार, विष्णुभुआ देशपांडे, कृष्णराव दाते, बाबूराव गोखले, भाकरराव खांडेपारकर, बलवंतराव भजनी, चुन्नीलाल कथक और राजाभैया पूंछवाले को मई 1917 में स्वरलिपि सीखने के लिए मुंबई भेजा गया। उन्होंने पं. भातखंडे से स्वरलिपि सीखी और मुंबई के संगीत महाविद्यालय का पाठ्यक्रम तैयार किया। दिसंबर 1917 में ये ग्वालियर लौट आए।
इस संस्थान ने दुनिया को कई बेहतरीन संगीतकार दिए हैं। महाराजा जीवाजीराव सिंधिया को भी संगीत में गहरी रुचि थी। उनकी पत्नी, ग्वालियर की पूर्व राजमाता विजया राजे सिंधिया भारतीय जनता पार्टी की संस्थापक सदस्यों में से एक हैं।
विजया राजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मेरे पति और मुझे संगीत सुनने का शौक था। बचपन में उन्हें ग्वालियर घराने के एक और स्तंभ पंडित कृष्णराव ने संगीत सिखाया था। हालांकि वे मेरे पति को संगीतकार नहीं बना पाए, लेकिन उन्होंने उनमें संगीत के प्रति इतनी गहरी रुचि पैदा कर दी थी कि वे समय-समय पर होने वाली बैठकों में आनंद लेते थे, जिसमें ग्वालियर स्कूल के उस्ताद या दूसरे आमंत्रित अतिथि बेहतरीन प्रदर्शन करते थे।’