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भोपाल

#WorldHeritageDay: मध्य प्रदेश में हैं विश्व के 3 धरोहर स्थल, इनके बारे में जानते हैं आप?

18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस मनाया जाता है। इसी के उपलक्ष्य में हम आपको मध्य प्रदेश की उन धरोहरों के बारे में बता रहे हैं, जिन्हें यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल की सूची में स्थान दिया है।

भोपालApr 18, 2019 / 01:09 pm

Faiz

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#WorldHeritageDay: मध्य प्रदेश में हैं विश्व के 3 धरोहर स्थल, इनके बारे में जानते हैं आप?

भोपालः मध्य प्रदेश अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक सौंदर्यता का धनी राज्य माना जाता है। यहां तीन ऐसे स्थान हैं, जिन्हें विश्व धरोहर के रूप में जाना जाता है। इसकी प्रमाणिकता की है UNESCO ने जिसने इन तीनों स्थानों को विश्व की 981 धरोहरो की सूची शामिल किया है। यूनेस्को ने मध्य प्रदेश के इन तीनों स्थानों में छतरपुर जिले के खजुराहो में स्थित मंदिरों को सूचीबद्ध किया है, इसके अलावा रायसेन जिले के सांची स्थित स्तूप को इसमें जगह दी गई है, वहीं रायसेन जिले की ही भीमबेटका गुफाओं को भी यूनेस्को की सूची में विश्व धरोहर का स्थान प्राप्त है।

 

 

इस आधार पर UNESCO देता है विश्व धरोहर का स्थान

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आपको बता दें कि, यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की सूची में उन स्थलों को शामिल किया जाता है, जिनका कोई खास भौतिक या सांस्कृतिक महत्व हो। इनमें इस तरह का संदेश प्रदर्शित करने वाले जंगल, झील, भवन, द्वीप, पहाड़, स्मारक, रेगिस्तान, परिसर या शहर को शामिल किया जाता है। हालांकि, अब तक यूनेस्कों द्वारा जारी सूची में पूरे विश्व की 981 धरोहरों को स्थान दिया गया है। यानी ये वो धरोहर हैं, जिन्हें विश्व की धरोहर कहा जाता है। इनमें से 32 विश्व की विरासती संपत्तियां भारत में भी मौजूद हैं। इन 32 संपत्तियों में से 25 सांस्कृतिक संपत्तियां और 7 प्राकृतिक स्थल हैं। इन्ही में से 3 विश्व धरोहरों का गौरव मध्य प्रदेश को भी प्राप्त है। आइए जानते हैं उन खास विश्व रोहरों के बारे में….।


1-खजुराहो के मंदिरों का समूह है विश्व धरोहर

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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 376 किलोमीटर दर छतरपुर जिले के खजुराहो में स्थित चंदेल राजाओं द्वारा निर्माण कराए गए मंदिरों की खूबसूरती को किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है। हिन्दू और जैन धर्म के मंदिरों का सबसे बड़ा समूह यहां स्थित है। इन्हें विश्व की सबसे खूबसूरत और सबसे प्रसिद्ध विरासतों में से एक माना जाता है। इन मंदिरों को युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर की सूची में साल 1986 में शामिल किया गया था। पहले इसे खर्जूरवाहक नाम से जाना जाता था। खजुराहो के ये मंदिर देश के सबसे खूबसूरत मध्ययुगीय स्मारक हैं। यहां स्थित मंदिरों का निर्माण चंदेलशासकों द्वारा 950 से लेकर 1050 ई के बीच कराया गया है। इन मंदिरों को जटकरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इन्हें नागर शैली में बनवाया गया है।

इन मंदिरों की है अलग पहचान

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इन भव्य और सांस्कृतिक मंदिरों का निर्माण चंदेल के हर शासक ने अपने शासनकाल के दौरान कम से कम एक मंदिर का निर्माण कराकर किया। मंदिरों का निर्माण कराना चंदेलों की परंपरा रही है इसलिए खजुराहो के सभी मंदिरों का निर्माण किसी ना किसी चंदेल शासक द्वारा कराया गया है। मुख्य तौर पर ये स्थान अपनी वास्तु विशेषज्ञता, बारीक नक्काशियों और कामुक मूर्तियों के लिए जाना जाता है। यही कारण है कि, इस रचना को यूनेस्को द्वारा वैश्विक धरोहर की सूची में शामिल किया गया। खजुराहो के मंदिरों की सुंदरता और आकर्षण के कारण ही इन्हें वैश्विक ख्याति प्राप्त हुई है।

आकर्षण का केन्द्र बनी इन मूर्तियों को यहां स्थापित दीवारों, खम्भों आदि पर देखा जा सकता है। मूर्तियों के माध्यम से सांसकृतिक सुख के बारे में गहन जानकारी दर्शाई गई है। यहां स्थापित मूर्तियों में हमारे रोज़मर्रा की जीवनशैली का भी विवरण है। कई शोधकर्ता और विद्वान मानते हैं कि, इन मूर्तियों के चित्रण से एक खास संदेश दिया गया है, जो मंदिर में प्रवेश करने वाले भक्तों पर लागू होता है, कि मंदिर में प्रवेश करने वाले अपने साथ जुड़े विलासिता पूर्ण मन को बाहर छोड़कर स्वच्छ मन से मंदिर में प्रवेश करें। इस विलासिता युक्त मन से छुटाकारा पाने के लिए ज़रूरी है इनका अनुभव करना। इसलिए इन मूर्तियों का चित्रण सिर्फ मंदिर के बाहरी छोर पर किया गया है।


नागर शैली में बनाए गए इन मंदिरों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है

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-पश्चिमी समूह वाले

कंदरिया महादेव मंदिर, चौसठ योगिनी मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, लक्षमण मंदिर और मातंगेश्वर मंदिर

-पूर्वी समूह वाले (जैन मंदिर)

पार्श्वनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर, घंटाई मंदिर

-दक्षिण समूह वाले

दूल्हादेव मंदिर, चतुर्भुज मंदिर

बीजमंडल की खोज

इसके अलावा हालही में प्राचीन मंदिरों के समूह की खोज भी की गई है। इन मंदिरों के समूह को बीजमंडल नाम दिया गया है। खजुराहो में उत्खनन कर निकाले जा रहे मंदिरों के इन समूहों को अब तक की पुरातत्विक बड़ी खोज माना जा रहा है, जिसका उत्खनन कार्य लगातार जारी है।


2-सांची का बौद्ध स्तूप है विश्व धरोहर

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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 52 किलोमीटर दूर रायसेन जिले के सांची में स्थित ये स्तूप भारत ही नहीं विश्वभर के पर्यटकों में काफी लोकप्रीय है। बौद्ध तीर्थ स्थल के रूप में पहचाने जाने वाले सांची स्तूप की सबसे खास बात ये है कि, ये स्तूप भारत के सबसे पुराने पत्थर से बनी इमारतों में से एक है। ये स्मारक तीसरी सदी से बारहवीं सदी के बीच लगभग 1300 वर्षों की अवधि में बनाया गया। इन स्तूपों को बनाने की शुरुआत मूल रूप से सम्राट अशोक ने की थी। इसके बाद समय के कई शासकों ने इसे मूल रूप के अनुसार बनाने का प्रयास किया। स्तूप को 91 मीटर (298.48 फीट) ऊंची पहाड़ी पर बनाया गया है। यूनेस्को ने साल 1989 में इसे भी विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था।

विश्वभर में मिली ख्याति का कारण

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इस स्थल को भारत ही नहीं बल्कि विश्वभर में मिली ख्याति का बड़ा कारण इसकी उम्र और गुणवत्ता माना जाता है। बौद्ध स्तूरों के समूह, मंदिरों और सांची के मठ (जिसे प्राचीन काल में काकान्या, काकानावा, काकानादाबोटा और बोटा श्री पर्वत कहते थे) मौजूद सबसे पुराने बौद्ध अभयारण्यों में से एक है। ये स्तूप लगभग संपूर्ण शास्त्रीय बौद्ध काल के दौरान बौद्ध कला और वास्तुकला की उत्पत्ति और उसके विकास की कहानी बयान करते हैं। मुख्य रूप से इस स्तूप का संबंध बौद्ध धर्म से है। यहां इसके अलावा और भी कई बौद्ध संरचनाएं देखने को मिलती हैं।

 

भगवान बुद्ध को दी गई इस तरह श्रृद्धांजलि

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इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो पता चलता है कि, मौर्य वंश के सम्राट अशोक द्वारा सांची स्तूप को बनाने के पीछे एक खास उद्देश्य था। उन्होंने भगवान बुद्ध को श्रद्धांजलि देते हुए ये स्तूप बनवाने शुरु किये थे। साथ ही, इसमें भगवान बुद्ध से जुड़ी वस्तुओं के अवशेषों को सहेजकर भी रखा गया था। श्रृद्धांजलि स्वरूप इन स्तूपों पर की गई नक्काशी में बौद्ध धर्म के महापुरुषों की जीवन यात्रा को दर्शाया गया है। इन स्तूपों को एक अर्धगोल गुंबद के रूप में बनाया गया है, जो धरती पर स्वर्ग की गुंबद का प्रतीक भी मानी जाती हैं।

प्रेम, शांति और साहस के इस प्रतीक में रखा गया वास्तु का विशेष ध्यान

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सांची स्तूप मध्यकालीन वास्तु कला का बेहतरीन नमूना है। एक विशाल अर्धपरिपत्र गुंबद के आकार का एक कक्ष है। इस कक्ष की लंबाई 16.5 मीटर और व्यास 36 मीटर है। सांची स्तूप को प्रेम, शांति और साहस का प्रतीक माना जाता है। इसे बनाने में वास्तु का भी खास ध्यान रखा गया है। इसे वास्तु गरिमा की एक समृद्ध विरासत का प्रतीक माना जाता है। यहां बने भित्ती चित्रों का नजारा भी पर्यटकों के बीच खासा अद्भुत और लोकप्रीय रहता है। बेहद शांत जगह होने के साथ ही सांची स्तूप बेहद खूबसूरत भी है।


3-भीमबेटका पाषाण आश्रय है विश्व धरोहर

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मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से महज 45 किलोमीटर दूर भीमबेटका में स्थित इन पांच पाषाण आश्रयों के समूह को साल 2003 में विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्राप्त हुआ था। भीमबेटका पाषाण आश्रय विंध्य पर्वतमाला की तलहटी में मध्य भारत की पठार के दक्षिणी छोर पर बनी हुई गुफाओं का समूह है। यहां भारी मात्रा में बालू पत्थर और अपेक्षाकृत घने जंगल हैं। इनमें मध्य पाषाण काल से ऐतिहासिक काल के बीच की चित्रकला भी देखने को मिलती है। इस स्थान के आस-पास के इक्कीस गांवों के निवासियों की सांस्कृतिक परंपरा में पाषाणीं चित्रकारी की छाप भी दिखती है। शोधकर्ताओं के अनुसार, यहां पाई गई चित्रकारी में से कुछ तो करीब 30,000 साल पुरानी भी हैं। गुफाओं में बनी चित्रकारी में नृत्य का प्रारंभिक रूप भी देखने को मिलता है। ये पाषाण स्थल इसी के चलते देश ही नहीं बल्कि विश्वभर में अपनी एक अलग पहचान रखता है।

 

महाभारत काल से जुड़ी मान्यता

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भीमबेटका को लेकर मान्यता ये भी है कि, यहां भीम का निवास हुआ करता था। हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवत गीता के अनुसार, द्वापर युग में हस्तिनापुर के पांच पाण्डव थे, जो सभी राजकुमार भी थे। इनमें से भीम दूसरे नंबर के राजकुमार थे। माना जाता है कि, महाभारत काल के राजकुमार भीम अज्ञातवास के दौरान भीमबेटका गुफ़ाओं में भी रहे थे। इसी के चलते ये स्थान भीम से संबंधित है। यही कारण है कि, इस स्थान का नाम एक दौर में ‘भीमबैठका’ भी रह चुका है। सबसे पहले इन गुफाओं को साल 1957-1958 में ‘डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर’ ने खोजा था। इसके बाद इस क्षेत्र को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। जिसे जुलाई 2003 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। ये गुफ़ा भारत में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न हैं।

 

चित्रकारी का उद्दैश्य पाषाणकालीन जीवन दर्शाना

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जानकारों का मानना है कि, भीमबेटका की गुफ़ाओं में बनी चित्रकारियों का मूल उद्देश्य उस जमाने में यहां रहने वाले पाषाणकालीन लोगों का जीवन दर्शन कराना होगा। विश्वभर में इनकी लोकप्रीयता का कारण इन गुफाओं में बनी प्रागैतिहासिक काल के जीवन को चित्रकारी के आधार पर बताना है। इसके साथ ही, ये गुफ़ाएं मानव द्वारा बनाये गए शैल चित्रों के ऐतिहासिक चित्रण के लिए भी प्रसिद्ध है। गुफ़ाओं के अंदर मिली सबसे प्राचीन चित्रकारी 12 हजार साल पुरानी मानी गई है, जो इतने वर्षों बाद आज भी लगभग उसी तरह मौजूद है। आपको जानकर हैरानी होगी कि, भीमबेटका में स्थित इन पांच पाषाण आश्रयों के समूह में क़रीब 500 गुफ़ाएं हैं। यहां चित्रित ज्यादातर तस्‍वीरें लाल और सफ़ेद रंग बनाई गई हैं, कुछ तस्वीरों को बनाने में पीले और हरे रंग का भी इस्तेमाल किया गया है।

 

चित्रों में दर्शाई गई है ये आकृतियां

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मुख्य रूप से इन चित्रकारियों में उस दौर के दैनिक जीवन की घटनाओं को दर्शाया गया है। इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है। अन्य चित्रकारियों में प्राचीन क़िले की दीवार, लघुस्तूप, पाषाण निर्मित भवन, शुंग-गुप्त कालीन अभिलेख, शंख अभिलेख और परमार कालीन मंदिर के अवशेष दर्शाए गए हैं। इसके अलावा गुफाओं में प्राकृतिक लाल और सफ़ेद रंग से जंगली जानवरों के शिकार का तरीका और घोड़े, हाथी, बाघ आदि के चित्र भी उकेरे गए हैं। वहीं, दर्शाए गए चित्रों में उस दौर के नृत्‍य, संगीत बजाने का उपकरण और तरीका, शिकार करने का तरीका, घोड़ों और हाथियों का सवारी के रूप में इस्तेमाल, शरीर पर आभूषणों को सजाने और शहद जमा करने के तरीके को भी चित्रित किया गया है।

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