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भोपाल गैस कांड : अगर गंभीरता से ले लिये जाते ये संकेत, तो उस रात मौत की नींद न सोते हजारों लोग

…तो इतिहास में दर्ज नहीं होती 3 दिसंबर 1984 की वो खोफनाक सर्द रात।

भोपालDec 01, 2020 / 08:17 pm

Faiz

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भोपाल गैस कांड : अगर गंभीरता से ले लिये जाते ये संकेत, तो उस रात मौत की नींद न सोते हजारों लोग

भोपाल/ विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी यानी भोपाल गैस कांड को इस बार 36 साल पूरे होने जा रहे हैं। लेकिन, मानों इस त्रासदी का शिकार हुए लोगों के जख्म जैसे अभी ताजा ही हैं और शायद ये कभी भरेंगे भी नहीं। क्योंकि अपनो को खोने का दर्द, वो भी किसी भयानक हादसे में, कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। 2 और 3 दिसंबर 1984 वो पहली रात नहीं थी, जब यूनियन कार्बाइड से वो जहरीली गैस रिसी थी। इससे पहले भी कई बार छोटे पैमाने पर गैस का रिसाव भी हुआ, जिसमें एक जान भी चली गई थी। लेकिन, कार्बाइड प्रबंधन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। अगर प्रबंधन इसे लेकर पहले ही सतर्क हो जाता, तो यकीनन भोपाल के शमशान में बदल देने वाली वो मनहूस रात इतिहास के पन्नो पर दर्ज ही नहीं होती।

 

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ये हादसे सबक लेने के लिए काफी थे, पर…

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सबसे पहला हादसा जनवरी 1982 में हुआ था। इस दौरान पाइप से हुए गैस रिसाव के संपर्क में आकर कंपनी के एक कर्मचारी मोहम्मद अशरफ की मौत हो गई थी। अशरफ पहला ऐसा शख्स था, जो कंपनी की उदासीनता और अनियमित्ताओं का शिकार हुआ था। हालांकि, इसपर प्रबंधन को ये अहसास भी नहीं हुआ कि, हम शहर के बीचो बीच जिस जहर का उत्पादन कर रहे हैं, उसमें जरा सी भी चूक क्या कयामत बरपा सकती है। अशरफ की मौत को अभी एक महीना भी नहीं बीता था कि, 10 फरवरी 1982 फैक्ट्री में को एक और दुर्घटना घट गई, जिसमें 25 कर्मचारी जहरीली गैस के प्रभाव में आ गए, हालांकि, उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाकर पर्याप्त एंटीडोड दे दिया गया था, जिससे उनकी जान बच गई।


वो करने वाले थे सचेत, पर…

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कार्बाइड के कर्मचारी अशरफ की मौत और 25 अन्य कर्मचारियों के साथ हुए हादसे के बाद कंपनी की दो ट्रेड यूनियनों ने कंपनी के खिलाफ रोष भी व्यक्त किया। दरअसल एक सुरक्षा नियम था, जिसके तहत फॉसजीन का निर्माण करने वाली इकाई में उत्पादन का काम बंद होने की स्थिति में गैस के भंडारण करने पर पाबंदी थी। अशरफ रात के समय जब अपने काम को अंतिम रूप दे रहा था, उस समय तक फैक्टी बंद हो गई थी, यानी जाहिर है उस वक्त उत्पादन बंद हो चुका था और नियम के अनुसार काम बंद होने के बाद पाइपों में जरा भी गैस नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन, नियम के विरुद्ध टैंकों में कुछ मात्रा में गैस छोड़ दी गई।


अशरफ की मौत के बाद भी किसी जिम्मेदार अधिकारी ने पाइप में गैस ना रखने की संबंधित ऑपरेटर को चेतावनी तक नहीं दी। हालांकि, यह एक ऐसा तथ्य था, जिसके लिए कंपनी जवाबदेही थी। उस समय दो ट्रेडयूनियनों के नेताओं के मुताबिक यह स्पष्ट रूप से कार्बाइड के सुरक्षा मानकों में आई गिरावट की ओर संकेत था। इसी के तरत दोनो ही ट्रेड यूनियनों ने इस संबंध में प्रदेश सरकार को भी सूचित करने की तैयारी कर ली थी। यूनियन सरकार को ये बताने वाली थी कि, तुरंत ही फैक्टरी को अत्यधिक जोखिमपूर्ण उत्पाद बनाने वाली फैक्टरियों की श्रेणी में डाले, जिससे कंपनी के लिए ज्यादा कड़ी सुरक्षा जरूरतों का पालन करना अनिवार्य हो जाए। लेकिन, इससे पहले ही वो भयानक रात आ गई।

 

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खामियां छुपाता रहा प्रबंधन

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पहली बार लोगों को यह अहसास हुआ था कि सुरक्षा मानकों की अनिवार्यता होनी चाहिए। जिन वस्तुओं के साथ वे काम कर रहे थे, ये प्राणघातक भी थीं और इस बार खतरे का एक भयानक चेहरा भी सामने आ चुका था। ट्रेड यूनियन नेताओं का गुस्सा सिर्फ इस बात पर था कि गैस से पीड़ित हुए कर्मचारियों से किसी अधिकारी ने संवेदनशील इलाके में जाते हुए सुरक्षा मास्क पहनने का आदेश क्यं नहीं दिये। इसके विपरीत प्रबंधन ने खुद को बचाते हुए मशीनी खामी बताकर ये तक कह गया कि, मशीनी खामी के चलते होने वाले गैस रिसाव में इतना विषैलापन नहीं है, जिससे किसी की जान चली जाए।


पांच अक्टूबर को फिर हुआ हादसा

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3 दिसंबर की घटना से मात्र दो महीने पहले यानी 5 अक्टूबर को फैक्टरी में एक बार फिर हादसा हुआ। अशरफ की मौत के बाद ये तीसरा हादसा था। इस बार हुआ हादसा मिथाइल आइसोसाइनेट बनाने वाली यूनिट में ही हुआ था। जब एक ऑपरेटर एमआईसी पाइपलाइन में एक वॉल्व को खोल रहा था, तो उसे कई अन्य पाइपों से जोड़ने वाला जोड़ अचानक फट गया, जिससे फैक्ट्री के अंदर जहरीली गैस का एक विशाल बादल बन गया। इसे देखकर कर्मचारियों और ऑपरेटरों में भगदड़ मच गई। फैक्ट्री के बाहर हवा की दिशा बताने वाला मार्क लगा था, सभी कर्मचारियों ने उसके विपरीत दौड़ना शुरु कर दिया, ताकि, जहरीली गैस के संपर्क में ना आएं। फैक्ट्री से निकलते वक्त एक कर्मचारी ने अलार्म भी बजा दिया था, जिससे फैक्ट्री के आसपास झुग्गियों में रहने वाले लोगों में भी भगदड़ हो गई थी।


उस वक्त भी मंजर यही था कि लोग चिल्ला रहे थे। भागो-भागो एक दुर्घटना घटी है। एक कर्मचारी ने दौड़ते हुए लोगों को बताया कि, संयंत्र में गैस भर गई है। अगर हवा इस दिशा में बहने लगी, तो जहरीली गैस की चपेट में आ जाओगे। लेकिन उस समय फैक्टरी के सायरन की लगातार आ रही आवाज फैक्टरी के सर्वेसर्वा के रूप में बैठे लोगों के इस विश्वास को नहीं तोड़ पाई थी कि, आग कोई भयावह अनहोनी भी भोपाल को तबाह कर सकती है। 3 दिसंबर से पहले कर्बाइड में हुए ये तीन ऐसे हादसे किसी भयावय घटना की ओर इशारा कर चुके थे। यूनियन के एक सदस्य ने तो यहां तक बताया कि, 1982 से 84 के बीच तीन ऐसे हादसे हो चुके थे, जिसकी जानकारी कंपनी के आला अधिकारियों समेत एंडरसन तक को थी। हालांकि, फैक्टी में जहरीली गैस का शिकार इक्का दुक्का कर्मचारी तो होते ही रहते थे, जिसपर कोई गौर नहीं किया जाता था।

 

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बड़े जन समर्थन के लिए शहर में चस्पा किये गए पोस्टर

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आए दिन होने वाली इन घटनाओं को देखते हुए कंपनी के विरोध में आए दोनों ही ट्रेड यूनियन के नेताओं ने करीब 6 हजार नोटिस पोस्टर छपवाए, जिन्हें यूनियन के सदस्यों द्वारा पूरे शहर चस्पा किया गया था। नोटिस में इन सभी हादसों का जिक्र किया गया था और लोगों को भी इससे सचेत होकर इसके खिलाफ खड़े होने की अपील की गई थी। नोटिस में बड़े बड़े लाल अक्षरों से लिखा गया था…। सावधान! सावधान!सावधान! दुर्घटनाएं! दुर्घटनाएं! दुर्घटनाएं! इन अक्षरों में यूनियन का विरोध साफ दिखाई दे रहा था। शहर में चस्पा नोटिस में ये भी कहा गया था कि, फैक्टी के हजारों कर्मचारियों और भोपाल के लाखों बाशिंदों की जान खतरे में है। नोटिस में, उस समय तक हुए सभी हादसों की सूची तो दी ही थी, साथ ही श्रम कानून के बार-बार उल्लंघन और सुरक्षा मानकों में ढिलाई का हवाला दिया गया था।


एक पत्रकार ने भी अपने लेख से चेताया, पर कोई नहीं जागा

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-17 सितम्बर 1982 को अपने अखबार ने अपने पहले आलेख के जरिये कहा था ‘कृपया हमारे शहर को बख्शें’ कई उदाहरण देकर फैक्टरी द्वारा पैदा किए जा रहे जोखिम का चित्रण भी किया था। पूरी आबादी को खतरे का इशारा भी इस आलेख के माध्यम से दिया गया था। लेकिन, ये पहला आर्टिकल छपा पढ़ा भी गया। लेकिन, विडंबना ये रही कि, इसकी कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई।

-दो हफ्ते बाद इसी अखबार में एक और आलेख छपा जिसमें कहा गया था कि, ‘भोपाल: हम एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं’। लेख के माध्यम से साफतौर पर कहा गया था कि, ‘वो दिन दूर नहीं जब भोपाल एक मृत शहर होगा’। हैरानी की बात ये है कि, इस आर्टिकल को भी किसी ने गंभीरता से नहीं लिया।


-इसके अगले ही सप्ताह में उस जुझारू और चिंचित पत्रकार ने एक और आलेख लिखा, जिसमें बिगड़ते हालातों पर एक बार फिर रोशनी डाली गई, आलेख में एक बार फिर कहा गया कि, ‘अगर तुमने समझने का प्रयास न किया, तो तुम धूल में मिल जाओगे।’ लेकिन, इसपर भी कोई जिम्मेदार संजीदा नहीं हुआ।

 

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मायूस होकर पत्रकार ने छोड़ दिया शहर

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कुछ समय बाद उस पत्रकार ने मायूस होकर अपना अखबार बंद कर दिया और भोपाल छोड़कर इंदौर चला गया। लेकिन उसने भोपाल छोड़ने से पहले मध्य प्रदेश के रोजगार मंत्री को जवाब देना चाहा, जिसने उस समय विधानसभा में ये घोषणा की थी कि ‘कार्बाइड फैक्टरी की मौजूदगी से कोई खतरा नहीं है, क्योंकि वहां पैदा होने वाली फॉसजीन गैस जहरीली नहीं है। ‘दो लंबे पत्रों में उस पत्रकार ने अपनी व्यक्तिगत रूप से की गई छानबीन के निष्कर्षों का सार लिखा था।


पहला पत्र उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को लिखा, जो कार्बाइड के निदेशकों को निजी तौर पर जानते थे। दूसरा पत्र सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को एक याचिका के रूप में लिखा था, जिसमें तय मापदंडों को लागू ना किये जाने का हवाला था, साथ ही उससे होने वाले खतरे को भंपते हुए फैक्टरी बंद करने की अपील की गई थी। लेकिन दोनों में से किसी ने भी पत्रकार द्वारा किये गए सवाल का जवाब देना आवश्यक नहीं समझा।

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