भोपाल

मरने के बाद इसलिए कराया जाता है मृत्युभोज, सच्चाई जानकर हैरान रह जाएंगे आप

आजकल के तरीकों के आधार पर ये प्रथा वाकई एक बड़ी बुराई का रूप धारण कर चुकी है। क्योंकि, अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..? इस कुरीति के कारण एक तरफ तो संबंधित परिवार पर अपने को खोने का दर्द और ऊपर से कर्ज के बोझ, कई बार मन को द्रवित कर देता है।

भोपालNov 10, 2019 / 04:23 pm

Faiz

मरने के बाद इसलिए कराया जाता है मृत्युभोज, सच्चाई जानकर हैरान रह जाएंगे आप

भोपाल/ पिछले कुछ दिनों से मृत्युभोज को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चाएं काफी गरम हैं। आधुनिकता और विकसित मानसिकता की ओर बढ़ते लोगों के बीच मृत्युभोज लम्बी बहस का मुद्दा बना हुआ है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। कई विद्वान ये भी मानते हैं कि, ये एक सामाजिक बुराई है, जिसे लोगों कि खत्म कर देना चाहिए। हालांकि, आज के परिवेश और मृत्युभोज के तरीकों पर गौर करें तो इनके विचार सही भी हैं। आजकल के तरीकों के आधार पर ये प्रथा वाकई एक बड़ी बुराई का रूप धारण कर चुकी है। क्योंकि, अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..? इस कुरीति के कारण एक तरफ तो संबंधित परिवार पर अपने को खोने का दर्द और ऊपर से कर्ज के बोझ, कई बार मन को द्रवित कर देता है।

 

पढ़ें ये खास खबर- गुणों की खान कही जाती है ये चीज, इस तरह खाने से मिलती है स्वस्थ और सुंदर संतान


मृत्युभोज का मनोवैज्ञानिक कनेक्शन

लेकिन, किसी धार्मिक नियम को कुरीति का रूप देना, फिर उसे गलत ठहराना ठीक नहीं है। नियम को अपने हिसाब से मोड़ तोड़ देने में हम खुद ही जिम्मेदार हैं। लेकिन, अगर मृत्यु भोज के पीछे के मूल उद्देश्य को समझें, तो इसके पीछे हमारे मनीषियों की सोच कुछ और ही रही है, जिसमें एक खास मनोवैज्ञानिकता भी झलकती है। वास्तव में ये एक तरह की अनूठी व्यवस्था है, जिसे दिखावे के चक्कर में हमने ही विकृत कर दिया है। इसमें ऐसे रहस्य छिपे हैं जिन्हें हम में से कई लोग नहीं जानते। वक्त के साथ इसमें जो विकृतियां आई, उन्हें हटाकर इसे मूल स्वरूप में देखेंगे तो इस व्यवस्था को पुन: स्थापित करना हमारे लिये ही लाभकारी होगा।

 

पढ़ें ये खास खबर- अमीरों की ये तीन आदतें आपको भी बना देंगी धनवान, कम समय में इस तरह जमा कर सकते हैं ज्यादा रुपये


मृत्यु भोज का सत्य

भारतीय वैदिक परम्परा में सोलह संस्कारों का व्यक्ति के जीवन में खास स्थान है। मृत्यु यानी अंतिम संस्कार इन्हीं में से एक है। इसके अंतर्गत मृतक के अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान आदि किया जाता है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, तीन या चार दिन बाद शमशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है। सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा, नर्मदा या अन्य पवित्र नदी में विसर्जित किया जाता है। दसवें दिन घर की सफाई या लिपाई-पुताई की जाती है। इसे दशगात्र के नाम से जाना जाता है। इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान व महापात्र को दान आदि किया जाता है। द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है। गंगा के पवित्र जल को घर में छिड़का जाता है। अगले दिन त्रयोदशी पर तेरह ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है। इसे ही मृत्युभोज कहा जाने लगा है। ये इतना खर्चीला हो गया है कि कई दुखी गरीब परिवारों की इसके कारण कमर टूट जाती है और वो कर्ज के तले दब जाते हैं।

 

पढ़ें ये खास खबर- कैल्शियम की कमी तेजी से दूर करती हैं ये चीजें, खोखली हड्डियां भी हो जाएंगी मजबूत


ये थी वैदिक व्यवस्था

वैदिक परम्परा के अनुसार, मृतक के घर पर आज भी कुछ लोग कपड़े आदि लेकर जाते हैं। पहले के जमाने में इसका दायरा और भी व्यापक था। परिचित व रिश्तेदार क्षमतानुसार अपने घरों से अनाज, राशन, फल, सब्जियां, दूध, दही मिष्ठान्न आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते थे। लोगों द्वारा लाई गई उन खाद्य सामग्रियों से ही कोई व्यंजन बनाकर लोगों को खिलाया जाता था। इसे पहले समाज के प्रबुद्धजनों यानी ब्राम्हणों को दिया जाता था और वे अपने हाथों से बनाकर भोजन ग्रहण करते थे। अब तो सिर्फ बिलकुल खास रिश्तेदार ही इस व्यवस्था को दुखी परिवार के लिए पूर्ण करते हैं। बाकी लोग सद्भावना में खाली हाथ ही पहुंचते हैं।

 

पढ़ें ये खास खबर- लिवर कमजोर पड़ने से पहले मिलने लगते हैं ये संकेत, भूलकर भी इन्हें न करें नज़रअंदाज


सुरक्षा का मनोविज्ञान

पहले के समय में उपचार की व्यवस्था इतनी सुविधाजनक सशक्त व नहीं थी। सभी घर मिट्टी-गारे से बने कच्चे होते थे। हैजा, कालरा जैसी घातक बीमारियों का प्रकोप फैलता था। इनसे या फिर वृद्धावस्था में बीमारी से मरने वाले व्यक्ति की देह से रोगाणु और विषाणु निकलते थे, जिनसे गंभीर बीमारियों के फैलने का खतरा रहता है। बीमारियां नहीं फैलें, इसलिए सफाई से पहले तक मृतक के परिजन के घर जाना या उसका स्पर्श गलत माना जाता था। इसे सूतक नाम दिया गया, जिसमें सुरक्षा का ही कवच है। जब घर पूरी तरह शुद्ध हो जाता है, तब औषधीय हवन कराकर घर के वातावरण को शुद्ध किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद लोग मृतक के परिवार में आने-जाने की शुरुआत होती है।

 

पढ़ें ये खास खबर- क्या आप भी हैं चाय के शौकीन ? अगर हां, तो कर रहे हैं अपनी सेहत से खिलवाड़

 

पढ़ें ये खास खबर- अब लाइलाज नहीं रह गया हड्डी का कैंसर, इस तरह संभव है उपचार


विद्वानों को भोजन कराने का विज्ञान

तेरहवीं में विद्वानों या ब्राम्हणों को खिलाने का नियम है। इसके पीछे भी रहस्य है। पं. स्व. श्री तिवारी के पुस्तक के अनुसार ब्राम्हण वर्ग उस समय अधिक शिक्षित होता था। वह औषधीय हवन के साथ वेदोच्चार की तरंगों के घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करता था। हवन उपचार के लिए इन्हें सदैव बुलाया जाता रहे, इसलिए इनके भोजन की व्यवस्था रख दी गई। तेरहवीं पर केवल गायत्री का जाप करने वाले यानी विद्वान और तपस्पी ब्राम्हणों को ही खिलाने का विधान है। ब्राम्हण कच्ची सामग्री यानी सीधा लेकर अपना भोजन खुद बनाते थे। महापात्र को दान के समय परिजनों को यह बताया जाता है कि हर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है। परिजन शोक में पड़कर कोई आत्मघाती कदम न उठाएं इसलिए महापात्र के माध्यम से एक लोकाचार निभाकर उसे जीवन की सच्चाई की सीख दी जाती थी।

 

पढ़ें ये खास खबर- कहीं आपके पास तो नहीं हैं 2000 रुपये के नोट, सोशल मीडिया पर चल रहा है ये मेसेज


ये भी रहस्य

पं. स्व. श्री तिवारी की पुस्तक के अनुसार मृत्यु के बाद दिए जाने वाले भोज में मृतक के पूज्य जनों जैसे कि गुरु, वैद्य, दामाद, समधी, बेटी व अन्य आत्मीय जनों को ही पहले भोजन कराया जाता था। उन्हें यथा शक्ति स्मृति चिन्ह दिए जाते थे। इसके पीछे रहस्य यह था कि मृतक के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसके संबंधियों का घर से नाता बना रहे। परिवार व रिश्तेदार एकजुट रहें।

 

पढ़ें ये खास खबर- मच्छरों को घर में नहीं घुसने देगा ये औषधीय पौधा, डेंगू-मलेरिया से बचे रहेंगे आप


… और हमने ये कर डाला

मृत्यु भोज के नाम पर आज लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं। जबकि पुराने समय में ऐसा सिर्फ राजा-महाराजाओं या सक्षम लोगों द्वारा प्रजा के लिए किया जाता था। अब हर आदमी खुद को श्रेष्ठ मानने लगा है। मेरे पास भी धन है… यह दिखाने के लिए लंबा खर्च उठाता है। धीरे धीरे ये कुरीति का रूप लेने लगा और सके चलते लोग भी साथ में अनाज व सहयोग के लिए अन्य सामग्री लाने की परम्परा को ही भूल गए। इधर, एक समय बाद लोगों को लगने लगा कि, शायद ज्यादा से ज्यादा और अच्छे से अच्छा खिलाने से ही पुण्य मिलता है। धीरे धीरे लोग इसके मूल उद्देश्य को भूलकर इसके पीछे इसके पीछे की सच्चाई से दूर हो गए।

Hindi News / Bhopal / मरने के बाद इसलिए कराया जाता है मृत्युभोज, सच्चाई जानकर हैरान रह जाएंगे आप

Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.