राम और सिया तो आये ही थे एक साथ अपनी लीला दिखा कर आने वाले युग को जीवन जीने की कला सिखाने, उनके विवाह में निर्णय का अधिकार किसी अन्य मनुष्य के पास क्या ही होता! पर लोक के अपने नियम हैं, अपनी व्यवस्था है। ईश्वर भी जब लोक का हिस्सा बनते हैं तो उसके नियमों को स्वीकार करते हैं।
विवाह की विधियों का प्रारम्भ बरच्छा से होता है, जब कन्या का पिता सुयोग्य वर का चयन करता और विवाह तय करता है। यहां इस विधि की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि राम चारों भाइयों को देख कर मुग्ध हुए समस्त जनकपुर ने मान लिया था, वर अच्छा है।
बारात राजा जनक के महल पहुंची, और द्वारपूजा के समय झरोखे से चारों को देख कर अंतः पुर की स्त्रियों ने औपचारिक रूप से स्वीकृति दी, हमें वर पसन्द हैं, वे विवाह की विधियों के लिए महल में प्रवेश कर सकते हैं।
द्वारपूजा की चौकी के पास खड़े मिथिला के सम्भ्रांत वर्ग ने दूल्हों पर अक्षत बरसा कर आशीष दिया। दूल्हों पर बरसते पुष्प और अक्षत विवाह की सामाजिक स्वीकृति का प्रमाण होते हैं। जैसे सबके उठे हुए हाथ आशीष दे कर कह रहे हों, “आप अबसे हमारे जीवन का हिस्सा हैं पाहुन! हम रामजी के हैं, और रामजी हमारे हैं।”
वर का निरीक्षण हो गया, अब कन्या के निरीक्षण की बारी थी। संसार की इस सबसे प्राचीन संस्कृति ने विवाह में चयन करने का अधिकार कन्या पक्ष को पहले और वरपक्ष को बाद में दिया है। कन्या पक्ष वर से संतुष्ट था, अब वर पक्ष की बारी थी। बारात में आये रामकुल के समस्त बुजुर्ग, गुरु, पुरोहित आदि कन्या के आंगन में पहुंचे और मण्डप में बैठी कन्याओं को देख कर विवाह की स्वीकृति दी। सिया, उर्मिला, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के सर पर आशीष का हाथ रख कर राजा दशरथ ने जैसे वचन दिया, “आज से मैं आप सब का पिता हुआ। जिस अधिकार से आप राजा जनक से कोई बात कह देती थीं, अपने ऊपर वही अधिकार अब मैं भी आपको देता हूँ।” कन्या निरिक्षण की परम्परा का यही सारांश है।
राम चारों भाई आंगन पहुंचे। पुरोहितों ने मंत्र पढ़े और स्त्रियों ने मङ्गल गीत गाया। दोनों वर-वधु के मङ्गल की प्रार्थनाएं थीं, एक शास्त्रीय और लौकिक… दोनों में किसी का मूल्य कम नहीं।
पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर जन्म-जन्मांतर तक एक दूसरे के प्रति निष्ठावान रहने की पवित्र सौगन्ध! इस संसार में इससे अधिक सुन्दर भाव कोई हो सकता है क्या? नहीं! चारों वर अपनी अपनी वधुओं का हाथ पकड़ कर सौगन्ध लेते हैं– “मैं अपने समस्त धर्मकार्यों में तुम्हे संग रखूंगा। मेरे समस्त पुण्यों में तुम्हारा भी हिस्सा होगा।” जीवन के बाद स्वर्ग की इच्छा से किये गए पुण्यों में भी पत्नी को आधा हिस्सा देता है पुरुष! इससे अधिक मूल्यवान और क्या होगा?
चौथे फेरे में पीछे चल रही वधु वचन लेती है,”अब से आप गृहस्थ हुए। इस नए संसार के स्वामी। मेरा और फिर हमारी सन्तति का पालन करना आपका दायित्व है, इसे स्वीकार करें।” पति सर झुका कर स्वीकार करता है।
पांचवा फेरा! वधु अब अधिकार मांग रही है। आप मुझसे राय लिए बिना कोई निर्णय नहीं लेंगे। इस गृहस्थी की ही नहीं, आपकी भी स्वामिनी हूँ मैं! मेरा यह अधिकार बना रहे, मेरी प्रतिष्ठा बनी रहे। मुस्कुराते राम शीश हिला कर स्वीकार करते हैं, सिया के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं।
सप्तपदी पूर्ण हुई। आशीर्वाद के अक्षत बरसे, स्नेह के पुष्प बरसे… धरा धन्य हुई, राम सिया के हुए!
क्रमशः