आज दीपावली की चर्चा के बीच मुझे भी एक याद आ रही है…दीपावली पर घर-घर खेले जाने वाले ताश पत्तों की, इन पत्तों का इक्का हो, जोकर या बादशाह अगर रुपए-पैसों से खेलो तो यह जुआ कहलाता है। हमारे यहां दीपावली पर भगवान गणेश लक्ष्मी पूजन, पटाखे, झालर, दीप प्रज्ज्वलन और नए कपड़े पहनने की खुशी के साथ ही जुआ खेलने की भी परम्परा भी रही है। चूंकि हमारे देश में जुआ खेलने पर चिरकाल से ही प्रतिबंध है, इसलिए दीपावली पर्व के आने की सुगबुगाहट के साथ ही घर की छतों और निर्जन स्थानों पर छुप-छुप के जुआ खेला जाता था। लोग सैंकड़ों रुपयों के दांव तो लगाते थे, लेकिन इधर दांव लगते उधर मन में पुलिस के आने का डर भी हावी रहता।
बात है 90 के दशक की
बात 90 के दशक की… ऐसी ही एक दीपावली की पूर्वसंध्या थी, तब मैं 15/16 साल का था और अपने ताऊ जी के घर आया हुआ था। ताऊ जी का घर मेरे घर के पास ही था। घर की छत पर मैं छोटे-मोटे पटाखे चलाने में व्यस्त था। तभी ताऊ जी और मुहल्ले के उनके कुछ मित्र आ गए और एक कोने में घेरा बनाकर जुआ खेलने के लिए जमात बैठ गई। कुछ ही देर में 10 और 20 रुपए के दांव लगना शुरू हो गए। लेकिन बिना किसी शोरगुल के, धीमी फुसफुसाहट भरी आवाज़ों के साथ, ताकि पुलिस तो छोड़ो पड़ोसियों को भी जुआ खेलने की खबर कानोकान खबर तक ना लगे।पुलिस आ गई…
तभी अचानक नीचे से कोई भागता हुआ छत पर आया और बदहवास होकर बोला ‘भागो! पुलिस आ गई है।’ पुलिस का नाम सुनते ही जुआ की जमात में शामिल सब लोग सिर पर पैर रखकर भागने लगे, जिसको जहां जगह नजर आई, कोई पड़ोसी की छत पर, कोई पीछे नाले की तरफ ऊंचाई से ही कूद पड़ा, कुछ लोग चोटिल हो गए और एक सज्जन का तो पैर ही टूट गया… और जब सभी भाग गए, उसके बाद पता लगा कि जुआ पकड़ने कोई पुलिस नहीं आई, बल्कि एक पुलिस वाले अंकल घर के मोहल्ले में बने मार्केट से दीपावली की खरीदारी करने आए थे। आज भी इस घटना को याद कर बरबस ही हंसी आ जाती है और मैं लोट-पोट हो जाता हूं। आप सब भी दीपावली का त्योहार हर्षोल्लास से मनाइए ऐसी शुभकामनाएं…
-विनय वर्मा (लेखक)
-विनय वर्मा (लेखक)