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Blog: इस दिवाली पर जरूर करें ये काम, फिर देखिए कैसे जमेगा वही पुराना खुशियों का रंग

Patrika Shubhotsav 2024: पत्रिका शुभोत्सव सीरीज में इस बार पढ़ें, स्वाभिमान शुक्ल का दीपावली स्मृति लेख.. बचपन की खूबसूरत यादें ऐसी ताजा होंगी कि आप भी दिवाली के यादगार लम्हों में खो जाएंगे…आपकी कलम जेब से जरूर निकलेगी..स्याही के रंग से शब्द बुनेगी…और सुंदर वाक्यों में ढली आपकी किस्सागोई पत्रिका की इस सीरीज का हिस्सा बनेगी… जरूर पढ़ें ये रोचक ब्लॉग…

भोपालOct 21, 2024 / 04:00 pm

Sanjana Kumar

Patrika Shubhotsav: पंच पर्व दिवाली पर एक नहीं कई यादगार किस्से आपको सुख-दुख का अहसास जरूर कराते होंगे। जीवन के सफर में सुख-दुख की रीति के बीच पत्रिका शुभोत्सव सीरीज में इस बार पढ़ें, स्वाभिमान शुक्ल का ये स्मृति लेख.. बचपन की खूबसूरत यादें ऐसी ताजा होंगी कि आप दिवाली के यादगार लम्हों में खो जाएंगे…आपकी कलम भी चल पड़ेगी…और आपकी किस्सागोई पत्रिका की इस सीरीज का हिस्सा होगी…

दीपावली का बेसब्री से था इंतजार

बहुत पीछे… जहां तक बचपन की याद जाती है, तो सिर्फ दो ही समय ऐसे थे जिनका बेसब्री से हम लोग को इंतजार रहता था, एक अपना जन्मदिन और दूसरा दीपावली। दोनों ही अवसर ऐसे होते थे जब, निम्न मध्यम वर्ग में बच्चों को नए कपड़े मिलते थे। खास तौर से भोपाल और इंदौर में दीपावली का इसलिए भी बेसब्री से प्रतीक्षा की जाती थी कि यहां पर गणेश जी, दुर्गा जी की झांकियों में सिनेमा दिखाया जाता था। रात 8 बजे से शुरू होने वाला ये सिनेमा देर रात तक चलता था। इस पर चार चांद लगाता था दशहरे से दीपावली तक 25 दिन का स्कूल का अवकाश।
सच कहें तो 2 से 3 महीने स्कूल के अलावा पढ़ाई बिसरा ही दी जाती थी। कोई भी ना पढ़ाई की बात करता था और न ही पढ़ने के लिए कहता था। पिताजी हायर सेकेंडरी बोर्ड में कार्यरत थे। रविशंकर नगर शासकीय आवासों की बोर्ड कॉलोनी थी, पुताई निश्चित अंतराल पर हो ही जाती थी। पूर्व में सिर्फ दो ही तैयारियां महत्वपूर्ण रहती थीं एक घर पर बिजली की झालर और दूसरा पटाखे। पटाखे कितने रुपए के खरीदने हैं, कहां से खरीदने हैं और पिताजी और घर वालों से कितनी बारगेन हो सकती है? यही उधेड़-बुन रहती थी। पटाखों के प्रति सब बच्चों का पागलपन एक सा रहता था।

अचानक फूटने लगे थे दोस्त की जेब में रखे बम

एक बार मेरा एक मित्र जेब में भरकर छोटे बम ले आया था जो अगरबत्ती से जलाकर फोड़े जाते थे। पता नहीं अचानक क्या हुआ कि उसकी जेब में रखे बम फूटने लगे वो डर गया और हम सब भी घबरा गए थे। फिर हमसे उम्र में थोड़े से बड़े भैया ने उसका पेंट उतारकर उसकी जान बचाई थी। आज वो लम्हा हंसा देता है, लेकिन उस वक्त डर के मारे हमारी हालत खस्ता थी।

पुराने भोपाल से लाते थे सामान

मुझे याद है बहुत शुरू के दिनों में पापा दीपावली के दिन बस से सिटी थाने पुराना भोपाल सामान लाने जाया करते थे। मां लिस्ट बना कर देती थीं लाई, बताशा ,मटकी- परई, दिए, मिठाई, दीया बत्ती, सिंघाड़े, फल, कमल डंडी, दूसरे फूल, लक्ष्मी जी की पेपर फोटो, मोर पंख इत्यादि और अंत में थोड़े से पटाखे। अपन भी पापा का हाथ पकड़े कंधे पर थैला टांगे बस में बैठ जाते थे। पहले सुगम बस चलती थीं, कुछ बसें जुड़ी होती थीं एक के पीछे एक। अधिकतर न्यू मार्केट टीन शेड तक ही जाती थीं फिर रंगमहल सिनेमा से भट्ट सूअर मिलते थे और पहुंच जाते थे चार बत्ती चौराहे तक।
वहां से पैदल पैदल आजाद मार्केट, जुमेराती चौक बाजार आते थे। लिस्ट के अनुसार सामान लेते-लेते सुबह के दस ग्यारह बज जाते थे। छोटे से लेकर बड़े दुकानदार, रेहड़ी वाले फेरी वाले पुराने भोपाल में ही दीपावली का बाजार सजाते थे। आखिर में पापा अग्रवाल पूड़ी भंडार चौक बाजार के पास से कचौड़ी समोसा चटनी डाल कर खिलाते थे। फिर आगरा मिष्ठान्न भंडार से मिठाई लेकर वापस रवि शंकर नगर आ जाते थे।

पहले चलती थी सुगम बस

सुगम बस 6 नंबर बस स्टॉप तक ही छोड़ती थी तो, वहां से पैदल-पैदल पहाड़ी चढ़कर घर पहुंचते थे। बहुत बाद में पहाड़ी पर रिजर्व बैंक कॉलोनी बन गई और शार्ट कट खत्म हो गया।
सुगम बस के बाद सिटी बसें चलने लगीं थीं वर्षों तक पापा के साथ सिटी बस का सफर किया। सिटी बस दो तरह की चलती थीं एक 5 नंबर बस और एक 9 नंबर बस। 5 नंबर बस 7 नंबर बस स्टॉप से पहले 10 नंबर स्टॉप, 11 नंबर स्टॉप से घूम कर रविशंकर नगर तक जाती थी जबकि, 9 नंबर बस 7 नंबर स्टॉप से रविशंकर नगर होते हुए 10, 11 नंबर स्टॉप तक जाती थीं।

आज भी याद है वो दिन

बचपन के दिनों की एक याद भुलाए नहीं भूलती…दीपावली का दिन था..हम लोग सामान लेकर 9 नंबर बस से रविशंकर नगर तक आए और थैले लेकर उतर गए। लेकिन पटाखों वाला थैला पापा से बस में ही छूट गया। घर पहुंचे और सामान देखा तो पता चला कि मुख्य चीज और हमारे काम की चीज तो बस में ही छूट गई। अब तो हमारा बड़ा रोना-गाना मचा। त्योहार के दिन बस स्टॉप पर कम से कम एक घंटा मैं खड़ा रहा बस आई तो ड्रायवर कंडक्टर हंस रहे थे बोले पहले गुजिया खिलाओ फिर देंगे तुम्हारा थैला। अगले दिन फिर प्रतीक्षा करके उनको गुजिया, मठरी, चूड़ा खिलाया।

पहले साइकिल घर आई, फिर हमारा सफर आसान किया स्कूटर ने

अगले साल दीपावली से पहले घर में साइकिल आ गई। अब बस के बजाय पापा के साथ साइकिल पर जाने लगे, वो भी आगे लगे डंडे पर बैठकर। पापा को साइकिल चलाने में दिक्कत को देखते हुए हम लोगों ने सिटी की जगह न्यू मार्केट पकड़ लिया दीपावली की शॉपिंग के लिए। कालान्तर में वर्षों पहले लगाए गए नंबर से बजाज स्कूटर लिया गया और फिर बाजार जाना आसान हो गया।

पहले यहां लगता था दीपावली मार्केट

पहले भोपाल में दीपावली का मार्केट पुराने शहर जिसे हम सिटी कहते हैं वहां लगता था, दूसरा बैरागढ़, तीसरा न्यू मार्केट और एक मार्केट भेल टाउनशिप में रहता था ।

मां और बहनें करती थीं साफ-सफाई, फिर बनाती थीं गुजिया, मठरी, नमकीन

घर पर मां साफ-सफाई का मोर्चा संभालती थीं, तो छोटी बहने उनकी मदद करती थीं। नाश्ता गुजिया, चूड़ा, सेव, मठरी, मीठी -नमकीन सब बनता था। मुझे याद है उन दिनों घर पर बना नाश्ता दीपावली के अगले दिन मैं और बहनें अड़ोस-पड़ोस और परिचितों के यहां थाली में सजाकर ले जाते थे। वहां से भी नाश्ता घर आया करता था। खास तौर पर चकली और अनारसे का बेसब्री से इंतजार रहता था हमें। बहनें बड़ी हुईं तो रंगोली का क्रेज हो गया। शुरू में तो वो लोग रेडीमेड सांचा लेकर आईं, फिर प्रैक्टिस करते-करते फ्री हैंड भी सुंदर रंगोली बनाने लगी थीं।

आज हम सोचते हैं कहां गया त्योहार का उल्लास? तो अपने मन में झांकें

लक्ष्मी जी पहुंचे ना पहुंचे पर उल्लास उमंग और खुशियां बराबर पहुंचती थीं और कम से कम 5 दिन तक रुकती भी थीं। आजकल सभी लोग कहते हैं अब त्योहार में वो उत्साह नहीं रहता। सब औपचारिक हो गया है। मैं ये मानता हूं त्योहार उत्साह, उमंग और खुशियां तो सब वही की वही हैं और हर अवसर पर हमारे घर-आंगन, मोहल्ले शहर में आती भी हैं, हम ही बड़े हो गए हैं तो सेलिब्रेट करने में सुस्त हो गए हैं। जीवन की आपा-धापी रोजगार ने अपनों से अपनेपन से दूर कर दिया है। आप बच्चों सा मन लाइए त्योहार एक बार फिर अपने आप अलौकिक हो जाएंगे ।
-दीपावली की आप सभी को शुभकामनाएं। मां सरस्वती, मां काली और मां लक्ष्मी सदैव कृपा रखें।

-स्वाभिमान शुक्ल (लेखक कहानीकार, व्यंग्यकार और ट्रेवल ब्लॉगर हैं.)

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