भोपाल

पारस मणि से हुआ था इस मंदिर का निर्माण, 500 साल बाद फिर दिखेगा भव्य स्वरूप

सबसे प्राचीन जैन मंदिर परिसर का रूप निखरने जा रहा है। करीब 1200 साल पुराने मंदिर को न केवल सहेजा जा रहा है बल्कि जैन समाज द्वारा नया भव्य मंदिर तैयार कर पूरे परिसर को विकसित करने की भी योजना है। ऐसा होने के बाद शहर के इतिहास को एक नई पहचान मिलेगी।

भोपालAug 18, 2019 / 03:56 pm

KRISHNAKANT SHUKLA

प्रवीण मालवीय, भोपाल. शहर से करीब स्थित समसगढ़ के जंगलों के बीच जिले के सबसे प्राचीन जैन मंदिर परिसर का रूप निखरने जा रहा है। करीब 1200 साल पुराने मंदिर को न केवल सहेजा जा रहा है बल्कि जैन समाज द्वारा नया भव्य मंदिर तैयार कर पूरे परिसर को विकसित करने की भी योजना है। ऐसा होने के बाद शहर के इतिहास को एक नई पहचान मिलेगी।
इस जंगल में छुपे हैं 52 मंदिरों के राज

मंदिर के पुजारी रूपेन्द्र कुमार बताते हैं कि, आठवीं सदी में श्रेष्ठी पाड़ाशाह पाड़ों के बड़े व्यापारी हुआ करते थे। व्यापारी के जंगलों से गुजरने के दौरान उनके पाड़ें पास ही बहने वाली पारस नदी में जा उतरे। नदी में पारस मणि होने के चलते पाड़ों की जंजीरें सोने की हो गई। इस सोने से 52 जैन मंदिरों का निर्माण किया गया। मुगलों के आक्रमण के समय सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए, लेकिन किसी तरह यह मंदिर बचा रह गया।
प्राचीन मंदिर, दुर्लभ है प्रतिमा

रातीबड़ मुख्य सडक़ से थाने की ओर जाने वाली सडक़ पर सात किमी अंदर की ओर जाने जंगल के बीच प्राचीन समसगढ़ मंदिर नजर आता है। इस प्राचीन मंदिर की दीवारों की नक्काशी शानदार है तो पूरा परिसर अलग ही शांति का एहसास कराता है, गर्भगृह में शांतिनाथ की लगभग 21 फीट ऊंची प्रतिमा विराजित है। उनकी हथेली में चक्र बना हुआ जो कि बेहद कम प्रतिमाओं में नजर आता है,प्रतिमा की खासियत यह भी कि बाहर से केवल बहुत छोटे से हिस्से के ही दर्शन होते हैं। भक्त जब द्वार पर पहुंचते है तो उन्हें पूरी प्रतिमा के दर्शन होते हैं। प्रतिमा इस तरह विराजित है भक्त चबूतरे पर खड़े होकर दर्शन करते हैं तो प्रतिमा के चरण भक्तों से नीचे की ओर रहते हैं तो मस्तिष्क ऊपर की ओर दिखाई पड़ता है।

 

 

चार करोड़ की लागत से मंदिर का नया परिसर विकसित होगा

प्रमोद जैन बताते हैं, जैन धर्म में मंदिर विषम संख्या में बनाए जाते हैं। यहां एक मंदिर मिला जिसकी देखरेख शुरू की गई। आसपास खुदाई में और प्रतिमाएं निकली तो दूसरा मंदिर 2011 में बनवा दिया गया। इस तरह दो मंदिर हो गए, मंदिर तीन की विषम संख्या में आ जाएं और सभी प्राचीन प्रतिमाएं को सम्मानपूर्वक स्थान मिल सके इसलिए मूल मंदिर के बगल में चार करोड़ की लागत से अन्य मंदीर बनवाया जा रहा है जो इस साल में बना लिया जाएगा। परिसर को भी विकसित किए जाने की योजना है।

1930 में फिर हुई मंदिर की खोज

लम्बे समय तक जंगलों में खोया रहा यह मंदिर 1930 में फिर दुनिया के सामने आया। तब लोहाबाजार के जुम्मालाल, पन्नालाल पंचरत्न ने इस मंदिर को खोजा। मंदिर का पुनरूद्धार कराया गया। जुम्मालाल के वंशज बताते हैं कि तब यहां जंगल इतना घना था कि लोग आने में डरते थे, भदभदा से यहां पैदल या घोड़े पर आना पड़ता था। जुम्मालाल एक बार यहां आए तो मंदिर के बाहर शेर आकर बैठ गया, उन्होंने मंदिर के अंदर शरण ली। तीन दिनों तक शेर मंदिर के दरवाजे पर बैठा रहा। इस दौरान जुम्मालाल ने प्यास लगने पर चूने की डिब्बी का पानी पिया। वे बाहर निकले तो शेर घोड़ी को खा चुका था, वह बमुश्किल भोपाल वापस पहुंच सके।

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