भावना ने पत्रिका को अपने संघर्ष के बारे में बताया बतौर लड़की और वो भी एक गांव के गरीब परिवार की होना सब अभिशाप माना करते थे जिसे मैंने गलत साबित करने करने के लिए अपनी जान दांव पर लगाकर दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने का ख्वाब देखा और उसे पूरा करने में अपनी पूरी शिद्धत लगा दी. दसवीं कक्षा में थी जब हमारे तामिया गांव के पास पातालकोट पर एक स्पोर्ट्स कैंप लगा था. स्कूल से हम वहां गए थे. वहीँ एक स्पोर्ट्स टीचर ने मुझे माउंटेन्स के बारे में बताया था. तभी तय कर लिया था पर्वतारोही बनूँगी. 12वी के बाद भोपाल आ कर फिजिकल एजुकेशन की डिग्री ली. घर से आर्थिक मदद ना लूँ इसलिए एडवेंचर स्पोर्ट्स के इवेंट्स में काम किया. आल इंडिया फिजिकल एजुकेशन एसोसिएशन के लिए काम किया। भारत के कई शहरों के स्कूल स्पोर्ट्स करवाए और कई बार वॉल क्लाइम्बिंग की जज भी बनी. इन सब से मेरे शहर में रहने का खर्चा निकलता था साथ ही अपने दो छोटे भाई बहन को साथ रख कर पढ़ाया। संघर्ष एवेरेस्ट के बाद भी जारी रहा. पर्वतारोहियों के लिए सरकारी जॉब नहीं होती। सरकार बदल जाती है और फिर सब शून्य से शुरू करना पड़ता है.
बचपन में ही उन स्पोर्ट्स टीचर ने बता दिया था की पर्वतारोहण के लिए बहुत पैसे लगते हैं और माउंट एवेरेस्ट जाने के लिए और उसकी तैयारी में लाखो रुपया खर्च आता है. मैंने 2019 को एवेरेस्ट फ़तेह किया परन्तु में 2015 से ही इसके लिए शारीरिक रूप से तैयार थी. इन सालो में देश के कई छोटे बड़े उद्योगों को स्पोंसरशिप के लिए कांटेक्ट किया, कई सरकारी बैंक और दफ्तरों के चक्कर लगाए। एवेरेस्ट के लिए 27 लाख रूपये की जरुरत थी. कई सारे मंत्री, नेता और विधायक से मिली मगर इन सबमें चार साल निकल गए. हार नहीं मानी और आखरी में हमारे क्षेत्र के मुख्यमंत्री बने जिन्होंने मेरी मदद की और में एवेरेस्ट जा सकीं। संघर्ष तो ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा है, बिना जिसके रहा, अधूरा हर क़िस्सा है।