नेता नाराज न हो जाए, इस डर से मुंह भी नहीं खोलते। 1994 बैच की आइएएस दीपाली इससे पहले एक अन्य लेख में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट खुले में शौच मुक्त भारत अभियान पर भी सवाल उठा चुकी हैं। उनके पति आइएएस मनीष रस्तोगी भी इ-टेंडरों में गड़बड़ी का खुलासा कर चर्चा में हैं। यह दंपती केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर जाने की तैयारी में है।
खरी-खरी : राष्ट्र सेवा से कोई मतलब नहीं, लग्जरी जीवन जी रहे अफसर
धारणा : हम सेवा करने के लिए आइएएस बने हैं।
हकीकत हमारा सेवा करने वाला व्यवहार ही नहीं रहता।
धारणा : राजकोष और मानव संसाधन को डील करते हैं।
हकीकत हमारे पास इसके लिए कोई अनुभव नहीं। न ही इसकी ट्रेनिंग मिली है।
धारणा : हमें अपनी बुद्धि-अनुभव पर अभिमान हैं, लोग हमारा सम्मान करते हैं।
हकीकत हमारे पास नुकसान और फायदा करने की ताकत है, इसलिए वे हमारा सम्मान करते हैं।
धारणा : हमें लगता है कि अच्छे आइडिया और पैसा बांट रहे हैं।
हकीकत हम जो बांट रहे हैं, वास्तव में वह हमारा नहीं।
धारणा : हमें व्यवस्था के बेहतर प्रबंध करने के लिए वेतन और सुविधाएं मिलती हैं।
हकीकत अव्यवस्था व भ्रम फैलाते हैं। इससे अपने हिसाब से चीजें चुनने में आसानी मिलती है।
धारणा : हम खुद को सरकारी व्यवस्था की नींव मानते हैं।
हकीकत कोई दूरदृष्टि नहीं। नेताओं को खुश करने वाले निर्णय लेते हैं।
धारणा : हम काम आसान बनाने का दावा करते हैं।
हकीकत हम व्यवस्था सुधारने पर काम ही नहीं करते। डर रहता है कि व्यवस्था बेहतर कर दी तो कोई नहीं पूछेगा।
धारणा : हम गर्व से कहते हैं लोकसेवा करते हैं।
हकीकत दिखावा ज्यादा करते हैं। वास्तव में देश से कोई लगाव नहीं। बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं, लग्जरी जीवन जी रहे हैं।
धारणा : लोगों की आवाज उठाने का दावा करते हैं।
हकीकत जनता के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं।
धारणा : हमें लगता है कि इतने पॉवर में हैं कि हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
हकीकत देश में सही न्याय होता तो हमारी कौम बहुत पहले ही खत्म हो जाती या दुर्लभ होती।
विजन नहीं, इसलिए देश में लैटरल एंट्री
दीपाली ने लिखा है कि लैटरल एंट्री की बात इसलिए उठी है, क्योंकि नेताओं को खुश करने उनके हिसाब से काम करना शुरू किया। सच और झूठ, सही और गलत में अंतर खत्म कर देने से मूल विचार खो गए। उन्हें वेतन, सुविधाएं, क्लब मेंबरशिप, कार, ड्रायवर, नौकर-चाकर, डिनर पार्टी, विदेश यात्रा और करीबियों के काम से मतलब रह गया है। ऐसे में नेताओं को भी लगने लगा कि आइएएस के पास विजन नहीं है।