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SRS की रिपोर्ट में खुलासा
भारत में इसका औसत आंकड़ा प्रति एक हज़ार में से 39 बच्चों की मौत का है। ये हम नहीं कह रहे, बल्कि ये आंकड़े ‘सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम’ यानी एसआरएस के 2019 में जारी रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार हैं। इससे पहले भी साल 2016 में एसआरएस द्वारा आंकड़े जारी किये गए थे। तब भी पूर्व की शिवराज सरकार के समय कुपोषण का शिकार होकर मरने वाले बच्चों का औसत आंकड़ा यही था। तब भी देशभर में ये सबसे ज्यादा था। हालांकि, सवाल ये है कि स्थितियां इतनी खराब होने के बावजूद मौजूदा सरकार का रवैय्या भी अब तक उदासीन ही है।
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जानिए क्या है आपका अधिकार
हर व्यक्ति को जन्म से लेकर उसकी मौत तक भोजन पाने का प्राकृतिक अधिकार मिला हुआ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा की तरफ से गठित किए गए मानावाधिकार आयोग ये सुनिश्चत करता है कि, कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, सबको पेट भरने योग्य भोजन मिले। ये अधिकार समाज के हर एक व्यक्ति को भूख से मुक्ति दिलाता है और साथ ही उसे सुरक्षित और पोषक भोजन उपलब्ध कराता है। संयुक्त राष्ट्र महसभा ने 1948 के सार्वभौम (यूनिवर्सल) घोषणा पत्र के आर्टिकल-25 में भोजन के अधिकार को सुरक्षित रखा और इसे समानता, स्वतंत्रता के अधिकार तरह ही वर्णित किया। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संधि के अनुच्छेद-11 में भी भोजन के अधिकार को प्रमुखता दी गई है।
हैरान कर देंगे ये आंकड़े
हैरानी की बात ये है कि, भारत में अब भी 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे हैं, जो मध्य प्रदेश जैसे करीब तीन राज्यों के लगभग बराबर है। दुनियाभर के 119 देशों की सूची में भारत का स्थान 100वें नंबर पर है। वहीं, कुपोषण की बात करें तो मध्य प्रदेश में ही हर एक हजार कुपोषित बच्चों में से 47 बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं, जो देशभर में सबसे ज्यादा है। देश में यही आंकड़ा प्रति एक हजार बच्चों में 39 बच्चों की मौत का है। वहीं, कुपोषण का शिकार होने वाले बच्चों की रोकथाम पर भी सरकार का कोई संजीदा रवैय्या नहीं है। यही कारण है कि, हर साल कुपोषण के कारण बच्चों की मौत का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।
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संविधान में ये हर राज्य का प्राथमिक कर्तव्य
ये कोई नई नाकामी नहीं है। मध्य प्रदेश ही नहीं बल्कि भारतभर में ये समस्या लंबे समय से अपने पांव पसारती चली आ रही है, जिसपर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने निर्णय में 2001 में भोजन के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार में अंतर्निहित किया। इसी के तहत सभी केन्द्र शासित राज्यों को निर्देश दिये गए थे कि, प्रत्येक नागरिक को समान रूप से भोजन देने और व्यक्ति के जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास करें। संविधान के अनुच्छेद 39 (ए) और 47 के तहत ये हर राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है।
सरकार का रवैय्या उदासीन
इसी के तहत भारत में भोजन के अधिकार को सुनिश्चित कराने के लिए सरकार जनवितरण प्रणाली (पीडीएस) सिस्टम जैसी योजनाएं शुरु की। मध्य प्रदेश में भी पूर्व की शिवराज सरकार द्वारा ‘दीन दयाल रसोई योजना’ शुरु की थी। जिसके तहत 5 रुपये में गरीबों को पेट भर खाना दिया जाने लगा, लेकिन कुछ ही दिन चलने के बाद बजट के अभाव में ये योजना भी ठंडे बस्ते में चली गई। वहीं, मौजूदा की कमलनाथ सरकार के कार्यकाल को भी आगामी 17 दिसंबर को एक वर्ष पूरा होने जा रहा है। बावजूद इसके प्रदेश सरकार ने अब तक इसे लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए। बीच-बीच में इसपर चर्चा भी हुई, लेकिन अब तक इस व्यवस्था को शायद कागज पर भी नहीं उतारा गया।
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पत्रिका व्यू
साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वैश्विक बहु—आयामी गरीबी सूचकांक ( Global multi-dimensional poverty index ) द्वारा जारी रिपोर्ट ने मध्य प्रदेश को देश के गरीब राज्यों की सूची में चौथा स्थान दिया था। जिसने पूर्व की शिवराज सरकार के बीमारू राज्य से विकासशील राज्य की श्रेणी में लाने वाले दावे को कटघरे में खड़ा कर दिया था। हालांकि, सरकार जाने का श्रेय कहीं न कहीं भाजपा को इससे भी हुआ था। फिलहाल, प्रदेश के हालात अब भी वही हैं। दीन दयाल रसोई योजना पूर्व सरकार के समय ही ठंडे बस्ते में चली गई थी। लेकिन, मौजूदा सरकार ने कार्यकाल का एक साल होने तक भी इसपर कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की है। हालांकि, सरकार बदलने के बाद मौजूदा सरकार, पिछली सरकार की कई योजनाओं को बदलकर उन्हें नए नाम से और नई व्यवस्थाओं के साथ अपना टेग लगाकर दौबारा शुरु कर देती है। इसे आप पुरानी योजना की खामियों को दूर करने से भी जोड़ सकते हैं या किसी भी व्यवस्था का क्रेडिट खुद भी लेने से जोड़ सकते हैं। खैर वजह जो भी हो, लेकिन सरकार को इस संवेदनशील मामले पर गंभीरता बरतनी चाहिए, ताकि भूख से परेशान व्यक्ति को उसका मौलिक अधिकार मिल सके।
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भोजन का अधिकार सुरक्षित