सतना से 35 किमी दूर है गांव
मध्यप्रदेश का एक जिला है। सतना…यहां से करीब 35 किमी दूर एक गांव है। नाम है जूंद। वैसे ये कोई आधुनिक या मार्डन गांव नहीं है। सामान्य गांवों की तरह ही है। पर जब भी इस गांव का जिक्र होता है सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। इस गांव में शाम को अक्सर देश भक्ति गाने बजते हैं और बातें सरहदों की होती हैं। ये गांव सेना में भर्ती होने का सपना पालने वाले युवाओं के लिए नर्सरी बन चुका है। घर-घर में देश भक्ति, शहादत व सैनिकों की वीरता की कहानियां सुनाई जाती हैं। इस गांव के आसपास के लोग इसे ‘सेना का गांव’ भी कहते हैं।
मध्यप्रदेश का एक जिला है। सतना…यहां से करीब 35 किमी दूर एक गांव है। नाम है जूंद। वैसे ये कोई आधुनिक या मार्डन गांव नहीं है। सामान्य गांवों की तरह ही है। पर जब भी इस गांव का जिक्र होता है सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। इस गांव में शाम को अक्सर देश भक्ति गाने बजते हैं और बातें सरहदों की होती हैं। ये गांव सेना में भर्ती होने का सपना पालने वाले युवाओं के लिए नर्सरी बन चुका है। घर-घर में देश भक्ति, शहादत व सैनिकों की वीरता की कहानियां सुनाई जाती हैं। इस गांव के आसपास के लोग इसे ‘सेना का गांव’ भी कहते हैं।
कारगिल में शहीद हुए थे सतना के 6 जवान
बताया जाता है कि इस गांव की आबादी करीब 3000 के आसपास है और सैनिकों की संख्या करीब 400 के पास है। कहते हैं यहां हर घर से कोई ना कोई सेना में जरूर होता है।
बताया जाता है कि इस गांव की आबादी करीब 3000 के आसपास है और सैनिकों की संख्या करीब 400 के पास है। कहते हैं यहां हर घर से कोई ना कोई सेना में जरूर होता है।
करगिल युद्ध के दौरान सतना जिले से 6 जवान शहीद हुए थे। इसमें से तीन शहीद इसी चूंद गांव के रहने वाले थे। नाम था सिपाही समर बहादुर सिंह, नायक कन्हैया लाल सिंह और बाबूलाल सिंह। उनके जज्बे की कहानी आज भी गांव के लोग सुनाते हैं। कन्हैया लाल सिंह और बाबूलाल सिंह सगे भाई थे। तिरंगे से लिपटा इन दोनों भाइयों का पार्थिक शरीर एक साथ ही गांव पहुंचा था। इन शवों को देखकर जहां हर किसी की आंखें नम थीं तो सीना गर्व से चौड़ा।
सेना में जाने का सपना
एक साथ दोनों बेटों का शव देखकर पिता ने कहा था मुझे बंदूक दे दो, मैं पाकिस्तानियों को मारूंगा तो गांव वालों ने कहा था- हमारा बेटा भी सेना में जाएगा। इस गांव के बहादुरों ने देश के लिए लड़े गए हर युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दिया है। देश के लिए लड़े गए हर युद्ध में यहां के सपूतों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर 1962 में चाइना वार, 1965 और 1971 में इंडो-पाक वार, ऑपरेशन मेघदूत, ऑपरेशन रक्षक और ऑपरेशन विजय सहित इस गांव के रणबांकुरों ने योगदान दिया है। इस गांव का युवा सरहद में ही नहीं बल्कि सेना के हर क्षेत्र में अपनी बहादुरी दिखा रहे हैं। सरहदों की रक्षा से लेकर रक्षा अनुसंधान तक में भूमिका अदा कर रहे हैं। इस गांव के लोग जल सेना, थल सेना और वायु सेना का भी हिस्सा हैं। यहां के युवा सैनिक से लेकर कर्नल तक की रैंक में पहुंच चुके हैं।
एक साथ दोनों बेटों का शव देखकर पिता ने कहा था मुझे बंदूक दे दो, मैं पाकिस्तानियों को मारूंगा तो गांव वालों ने कहा था- हमारा बेटा भी सेना में जाएगा। इस गांव के बहादुरों ने देश के लिए लड़े गए हर युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दिया है। देश के लिए लड़े गए हर युद्ध में यहां के सपूतों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर 1962 में चाइना वार, 1965 और 1971 में इंडो-पाक वार, ऑपरेशन मेघदूत, ऑपरेशन रक्षक और ऑपरेशन विजय सहित इस गांव के रणबांकुरों ने योगदान दिया है। इस गांव का युवा सरहद में ही नहीं बल्कि सेना के हर क्षेत्र में अपनी बहादुरी दिखा रहे हैं। सरहदों की रक्षा से लेकर रक्षा अनुसंधान तक में भूमिका अदा कर रहे हैं। इस गांव के लोग जल सेना, थल सेना और वायु सेना का भी हिस्सा हैं। यहां के युवा सैनिक से लेकर कर्नल तक की रैंक में पहुंच चुके हैं।