मां को अम्मी और पिता को अब्बी कहते थे
भोपाल से प्रकाशित एक किताब में ऐसे कई किस्से मिले जो जादू (जावेद अख्तर) की जिंदगी को करीब से जानने का मौका देते हैं। जावेद अख्तर अपनी मां को अम्मी कहकर पुकारते थे। वहीं अपने पिता को अब्बी कहा करते थे। जावेद बताते हैं कि उनके अम्मी और अब्बू केवल 9 साल साथ रहे। इनमें भी 6 साल अलग-अलग शहरों में नौकरी करने में गुजरे। जनवरी 1953 में उनकी अम्मी चल बसी थीं। जावेद अख्तर और उनके छोटे भाई सलीम दोनों भोपाल में ही साथ रहे।कान में नहीं दी गई अजान
जावेद अख्तर अपने जन्मदिन का एक किस्सा भी सुनाते हैं, जिसके मुताबिक मुस्लिम परिवारों में बच्चे के जन्म पर उसके कान में अजान पढ़ने की परम्परा होती है। लेकिन जावेद अख्तर जब पैदा हुए तो उनके अम्मी और अब्बी ने ऐसा नहीं किया। अलग विचारधारा के होने के कारण वे पहले सोचने लगे कि उन्हें क्या करना चाहिए. तब उनके अब्बी ने उस वक्त कॉम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो की किताब की कुछ लाइनें उनके कान में पढ़ दी थीं, क्योंकि उनके हाथ में उस वक्त वही किताब थी।जादू से कैसे हुए जावेद अख्तर
जावेद बताते हैं कि जब उनका नाम रखा जा रहा था, तब उनके दोस्त ने उन्हें एक गजल की याद दिलाई, जिसके अल्फाज कुछ यूं थे
-लम्हा-लम्हा किसी जादू का फसाना होगा-
ये वही गजल थी जो अब्बी ने अपनी शादी के वक्त लिखी थी। इस तरह उन्हें जादू कहकर बुलाया जाने लगा। लेकिन जब किंडरगार्टेन जाना शुरू किया, तब दोबारा उनका नाम रखा गया और वे जादू से जावेद हो गए। बता दें कि जावेद अख्तर के पिता का नाम जान निसार और मां का नाम सफिया अख्तर था।
22 साल बाद घर में आई थी खुशी
जावेद अख्तर अपने घर में आने वाली ऐसी खुशी थे जिसने हर किसी के चेहरों का नूर बढ़ा दिया था। इसका कारण था 22 साल के लंबे अंतराल के बाद घर में कोई पैदा हुआ था। ऐसे में जावेद अख्तर अपने घर-परिवार के लिए किसी चांद से कम नहीं थे।
मां की मौत ने बदल दी जिंदगी
हर किसी की लाइफ में अच्छी-बुरी यादें ता जिंदगी तारी रहती हैं। कुछ लम्हे एक पल में आपकी जिंदगी बदल देते हैं। जावेद अख्तर की लाइफ से जुड़ा एक ऐसा ही किस्सा जावेद अख्तर की लाइफ से भी जुड़ा है। कैसे उनकी मां की मौत ने उनकी जिंदगी बदलकर रख दी।कामयाबी में आज भी साथ चलती हैं अम्मी
जावेद अख्तर मानते हैं कि मां का जाना उनकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है, लेकिन उनकी हर कामयाबी में आज भी उनकी मां साथ चलती हैं।1947 में छोड़ा ग्वालियर
जावेद अख्तर के पिता ने 1947 में ग्वालियर छोड़ दिया था। वे यहां गवर्नमेंट हमीदिया आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज के उर्दू विभाग के प्रमुख नियुक्त किए गए। जावेद की अम्मी ने भी वहां लेक्टरर के तौर पर काम किया। छुट्टियों में वे अपने ननिहाल लखनऊ जाया करते थे। फिर भोपाल में बीता बचपन।भोपाल की महबूब मंजिल में था घर
जावेद अख्तर का बचपन एमपी की राजधानी भोपाल में भी गुजरा। वे अपने परिवार के साथ महबूब मंजिल के पहले फ्लोर पर रहा करते थे। उसकी बालकनी में दो बेंचे रखी होती थीं। एक नीली और दूसरू पीली। नीली बैंच उनकी थी और पीली भाई सलीम की हो गई थी। ये वही बालकनी थी जहां बैठकर जावेद और उनके भाई सलीम अम्मी और अब्बी को घर लौटते देखते थे। क्योंकि बालकनी के सामने लाल परेड ग्राउंड था और हमीदिया कॉलेज भी जहां वो पढ़ाया करते थे।स्कूल में बना दिया था लाल झंडा तो मां के पास पहुंची थी शिकायत
बचपन का एक किस्सा भी मिला, जिसके मुताबिक जब जावेद किंडरगार्टेन में पढ़ते थे, तब उनकी टीचर ने झंडा बनाने के लिए कहा। उन दिनों कॉम्यूनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लग चुका था। लेकिन जावेद ने एक लाल झंडा बनाया और टीचर को दे दिया। इसकी शिकायत मेरी मां तक पहुंच गई। देखिए आपके बेटे ने क्या बनाया है। ध्यान रहे आप अपनी नौकरी गंवा सकती हैं। याद रखिए आप सरकारी कॉलेज में पढ़ा रही हैं।
अम्मी कॉलेज जातीं तो संभालती थीं असरोगा से आई नानी
माता-पीता दोनों की नौकरी के चलते जावेद और सलीम दोनों भाईयों पर ध्यान देना मुश्किल होता जा रहा था। तब असगोर से आई नानी उन्हें संभालती थीं। 6 साल के जावेद और साढ़े चार साल के सलीम को संभालने आई नानी जावेद की नानी की दूर की रिश्तेदार थीं। इसलिए वे उन्हें नानी ही कहा करते थे। असरोगे उत्तर प्रदेश का एक गांव है।