International Tiger Day 2024 : मध्य प्रदेश के नेशनल पार्क में बाघों की मौत का मुख्य कारण वर्चस्व की लड़ाई है। जंगल छोटा हो रहा है और बाघों की संख्या बढ़ रही है। इसके अलावा, शिकार और मानवीय हस्तक्षेप भी बाघों के लिए अब बड़ा खतरा बन गया है।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण एनटीसीए के अनुसार, 2023 में मध्य प्रदेश में 41 बाघों की मौत हुई थी। ये आंकड़ा 2022 में हुई मौतों से 30 फीसदी ज्यादा है। 41 बाघों की मौत में 30 टाइगर रिजर्व में हुई है। अगर औसत आंकड़े की बात करें तो मध्यप्रदेश में हर 10वें दिन एक बाघ की मौत हो रही है।
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संजय टाइगर रिजर्व की शान ‘टी-11 कमली’
मैं हूं कनकटी की बेटी और संजय टाइगर रिजर्व की बाघिन टी-11 कमली, आप मुझे इसी नाम से जानते-पहचानते हैं। मैंने बांधवगढ़ में घटते जंगल के बीच वर्चस्व की लड़ाई में अपनी मां कनकटी और भाइयों को खोया है! आज विश्व बाघ दिवस पर में एक बाघिन के दर्दनाक सफर के साथ जंगल की अनजानी कहानी सुना रही हूं। बांधवगढ़ में क्षेत्र को लेकर कनकटी और चक्रधरा के बीच हुई लड़ाई ने हम बच्चों के जीवन को पूरी तरह बदल दिया। कनकटी की बेटी के रूप में मैंने परिवार खोया, जंगल में संघर्ष किया और फिर एक नए जीवन की शुरुआत की। बांधवगढ़ को छोड़कर संजय टाइगर रिजर्व के नए जंगल में शरण ली, 10 से ज्यादा बाघों को जन्म देकर बाघ परिवार का कुनबा बढ़ाया है।बाघिन की कहानी उसी की जुबानी’
मेरी कहानी दरअसल, बांधवगढ़ और प्रदेश के कई नेशनल पार्क के बाघों की कहानी है। हम जंगल के राजा हैं, लेकिन हमारा राज घटते हुए जंगल के बीच सिर्फ वर्चस्व की लड़ाई तक सीमित रह गया है। जंगल में जीवन की जंग जानलेवा और जानदार होती है। मौजूदा सल्तनत भी मैंने संघर्ष से ही हासिल की है। हमारी कहानी 12 साल पहले 6 जुलाई 2012 को शुरु हुई। वर्चस्व को लेकर मां कनकटी और चक्रधरा (लंगड़ी) बाघिन के बीच लड़ाई होती है। क्षेत्र कम था, ताला में बाघ संख्या ज्यादा थी। मां अपना क्षेत्र बनाना चाहती थी। इलाके को लेकर हुए संघर्ष में चक्रधरा की मौत हो जाती है। चक्रधरा के डेढ़ साल के दो शावक जिंदा बच गए। मेरी मां ने दोनों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। दोनों रछा की तरफ जाकर रह रहे थे। नर बाघ बड़ा होकर वापस ताला में इलाका बनाने लगा जो अब रंछा मेल के नाम से जाना जाने लगा। हम ताला में रहते थे। सन्नहा जमुनिहा के पास। यहां चरण गंगा नदी थी, पहाड़ी में सिद्धबाबा भी थे। शिकार और पानी भी आसानी से मिल जाता था। पर्यटकों को हमारा परिवार आसानी से दिख जाता था। कुछ समय में मैं और परिवार पर्यटकों की पसंद बन गए। मेरी मां भी बहुत अच्छी थी।
ताला कोर में इंसानी दखल रहता था। कई बार गांव वाले सामने आ जाते थे। फारेस्ट गार्ड भी अकसर सामने आ जाते थे, लेकिन हमने कभी किसी पर हमला नहीं किया। मां शुरू से ही हमें सतर्क और छुपाकर रखती, यह भी समझाती कि विशेष आवाज देने पर ही गुफा से बाहर आना है।मां को अंदेशा था कि चक्रधरा (लगड़़ी) का बदला और वर्चस्व बनाने के लिए रंछा मेल टाइगर नुकसान पहुंचा सकता है। एक दिन वही हुआ। जब गुफा से बाहर लाकर मां शिकार करना सिखा ही रही थी, तभी रंछा मेल ने हमला कर दिया। मां बचाव में आई तो उसे भी घायल कर दिया। मेरी आंखों के सामने मां भाइयों को मार दिया गया। मां की मौत के बाद मैं भूख से बिलखती रही। मां के इर्द-गिर्द घूमती रही। वन अधिकारियों को बारिश की वजह से पदचिन्ह भी नहीं मिल पा रहे थे। अंततः बरुहा, जुड़मानी, सन्नहाटोला, बड़ी गुफा होते हुए 50 से ज्यादा वनकर्मियों की टीम पहुंच गई।
कम उम्र कम थी तो टंकुलाइज नहीं किया, तौलिया ढांककर पकड़ा, फिर पिंजरे में रख दिया। दो साल बाड़े में अकेले रही। देखभाल में लगे कर्मचारियों ने मां की कमी महसूस नहीं होने दी। उम्र बढ़ी तो मुझे संजय टाइगर रिजर्व भेज दिया गया। यहां मैंने कुनबा बढ़ाया और तीन बार में 3-3 और 4 शावकों को जन्म दिया। सुना था यहां बाघ कम हैं, जंगल ज्यादा बड़ा है। लेकिन कुछ वक्त बाद यहां भी पुराने हालात बन गए। पुराना संघर्ष देखा है, इसलिए मैंने बच्चों को इलाका दिया और अब ब्यौहारी के जंगल में रहती हूं। अक्सर सुनती हूं बढ़ते जंगल के बीच बांधवगढ़ में 80% बाघों की मौत आपसी द्वंद्व में हो रही है। जंगल से बाहर निकलते हैं, तो करंट के जरिए शिकार का डर रहता है या ट्रेन की चपेट में आ जाते हैं। पूरे प्रदेश के नेशनल पार्क में यही हाल हैं। बांधवगढ़ में 130 से ज्यादा गांव बफर और कोर से सटे हैं। 20 गांवों का विस्थापन रुका हुआ है।
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