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रमज़ान के रोज़े की अहमियत? (महत्त्व)
माह-ए-रमज़ान में रखा जाने वाला रोज़ा हर तंदुरुस्त (सेहतमंद) मर्द और औरत पर फर्ज़ (लागू) है। रोज़ा छोटे बच्चों, बिमारों और सूझ समझ ना रखने वालों पर लागू नहीं होता। हालांकि, ये रोज़े इतने अहम (खास) माने जाते हैं कि, इन दिनों में किसी बीमारी से ग्रस्त पीड़ित या पीड़िता के ठीक होने के बाद इन तीस दिनों में से छूटे हुए रोज़ों को रखना ज़रूरी है।
अगर किसी वजह से वो इन दिनों के छूटे रोज़े नहीं रख सकता, तो वो एक इंसान के एक दिन के रोज़े के बदले में एक किलो छह सौ तैतीस ग्राम इस्तेतातमंद (मालदार) होने पर किशमिश और ग़रीब होने पर गेंहू (इसकी कीमत भी) किसी गरीब-मुस्तहिक़ (ज़रूरतमंद) को सद्खा (दान) करके एक रोज़े का बदल दे सकता है, हां लेकिन अगर कोई शख्स (इंसान) इन रोज़ों को जानकर छोड़ता है, तो उसे एक रोज़ा छोड़ने के बदले लगातार साठ दिनों तक लगातार रोज़ा रखना होगा, वहीं इसमें से अगर कोई एक भी रोज़ा फिर छूटता है, तो उसके बदले में भी फिर से साठ रोज़े रखने होंगे। इन रोज़ों को इतना सख़्त (कठोर) बनाने का मक़सद सिर्फ इन रोजों की अहमियत (महत्व) बताना है।
बता दें कि, रोज़े का वक़्त सूरज के निकलने से तय समय पहले से शुरू होता है, जो सूरज के डूबने के बाद तय समय पर ख़त्म होता है।
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क्या होती है “तरावीह”?
वैसे तो, रमज़ान जिसे इबादत (भक्ति) के महीने के नाम से जाना जाता है वो इस महीने के चांद के दिखते ही शुरू हो जाता है। रमज़ान का चांद दिखते ही लोग एक दूसरे को इस महीने की मुबारकबाद (बधाई) देते हैं, फिर उसी रात से तरावीह का सिलसिला (प्रक्रिया) शुरु हो जाता है। तराबीह एक नमाज़ है, जिसमें इमाम (नमाज़ पढ़ाने वाला) नमाज़ की हालत में क़ुरआन (ईश्वर द्वारा भेजी गई आसमानी किताब, ग्रंथ) पढ़कर नमाज़ में शामिल लोगों को सुनाता है। इसका मकसद है कि, लोगों की क़ुरआन के ज़रिए अल्लाह (ईश्वर) की तरफ से भेजी हुई बातों के बारे में बताना।
इस बार घरों में ही पढ़ना होगी तरावीह
तरावीह को रात की आखिरी, यानि इशां की नमाज़ के बाद पढ़ा जाता है। क़ुरआन बहुत बड़ी किताब होने की वजह से एक बार में नमाज़ की हालत में सुनना मुश्किल होता है। इसलिए इस किताब को तरावीह में पढ़ने और सुनने के लिए रमज़ान के दिनों में से कुछ दिन तय कर लिए जाते हैं। इसमें हर मस्जिद अपनी सहूलत के मुताबिक, रमज़ान के तीस दिनों में से तरावीह पढ़े जाने के दिन तय कर लेती है और उन्हीं दिनों में क़ुरआन को पूरा पढ़ते और सुनते हैं। आमतौर पर तरावीह की नमाज़ में देढ़ से दो घंटों का वक़्त लग जाता है। हालांकि, इस बार कोरोना वायरस के चलते सोशल डिस्टेंसिंग की अहमियत (महत्व) को समझते हुए देशभर के शभी उलेमाओं ने तरावीह समेत सभी नमाजें मस्जिद में सबके साथ न मिलकर अपने घरों में ही पढ़ने की अपील की है।
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क्या होती है “सहरी”?
रोज़े की शुरुआत होती है सहरी से, सहरी उस खाने को कहा जाता है, जो सहर यानि सुबह की शुरुआत होने से पहले खाया जाए। इस्लाम के मुताबिक, इस खाने को काफी फायदेमंद बताया गया है। इसमें कहा जाता है कि, कोई हल्का फुल्का खाना खाएं, किसी तरह का मसालेदार या भारी खाना खाने का इसमें मना किया जाता है। इस खाने को इतना ख़ास माना जाता है, कि इसके बारे में प्राफेट मोहम्मद स. (वो ऋषि जिनके द्वारा ईश्वर ने ग्रंथ को जमीन पर भेजा) ने फ़रमाया (बताया) कि, ये सेहरी करना इतना खास है कि, लोगों को रात के आखिर हिस्से में अगर एक खजूर या थोड़ा सा पानी ही खाने-पीने का मौका मिले, तो उन्हें खा लेना चाहिए।
कितनी ज़रूरी है सहरी?
लेकिन, ऐसा बिल्कुल भी जरूरी नहीं है कि, हर रोज़े को रखने के लिए सहरी करनी ज़रूरी होती हो, अगर किसी वजह से सेहरी छूट जाए, मान लीजिए नींद नही खुल पाई और रोज़े का वक़्त या इसी जैसी और भी कोई वजह हो, जिसमें समय रहते इंसान सेहरी न कर पाया हो, तो ऐसे हाल में भी रोज़ा रखना ज़रूरी है। क्योंकि इन चीज़ों की भी इस्लाम के नज़दीक केटेगिरी बनाई गई है। जैसे रमज़ान के रोज़े जैसा कि, मेने आपको पहले भी बताया ये हर तंदुरुस्त इंसान पर फर्ज़ (मजबूती से लागू होने वाला काम) वहीं, सेहरी सुन्नत (वो काम जो प्राफेट मोहम्मद स. ने अपनी जिंदगी में किया, जिसके करने से फायदा होगा, लेकिन जिसके ना करना गुनाह (पाप)नहीं है) इसलिए अगर किसी वजह से सेहरी छूट जाती है, तो भी रोज़े को नहीं छोड़ा जा सकता।
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क्या होता है “रोज़ा”?
रोज़े के मायने सिर्फ यही नहीं है कि, इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहना होता है। बल्कि रोज़ा वो अमल (कार्य) है, जो रोज़दार को पूरी तरह से पाकीज़गी (शुद्धीकरण) का रास्ता (मार्ग) दिखाता है। रोज़ा वो अमल है जो इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई का रास्ता (मार्ग) दिखाता है। महीने भर के रोजों को जरिए अल्लाह (ईश्वर) चाहता है कि, इंसान अपनी रोज़ाना की जिंदगी को रमज़ान के दिनों के मुताबिक़ गुज़ारने वाला बन जाए, यानि संतुलित (नियमित)।
सिर्फ खाने पीने पर रोक का नाम नहीं रोजा
रोज़ा सिर्फ ना खाने या ना पीने का ही नहीं होता, बल्कि रोज़ा शरीर के हर आज़ा (अंग) का होता है। इसमें इंसान के दिमाग़ का भी रोज़ा होता है, ताकि, इंसान के खयाल रहे कि, उसका रोज़ा है, तो उसे कुछ गलत बाते गुमान (सोचना) नहीं करनी। उसकी आंखों का भी रोज़ा है, ताकि, उसे ये याद रहे कि, उसका रोज़े में उसकी आखों से भी कोई गुनाह (पाप) ना हो। उसके मूंह का भी रोज़ा है ताकि, वो किसी से भी कोई बुरे अल्फ़ाज (अपशब्द) ना कहे और अगर कोई उससे किसी तरह के बुरे अल्फ़ाज कहे तो वो उसे भी इसलिए माफ कर दे कि, उसका रोज़ा है। उसके हाथों और पैरों का भी रोज़ा है ताकि, उनसे कोई ग़लत काम ना हों।
बुराइयों से रोकता है रोज़ा
आपको बता दें कि, इस तरह इंसान के पूरे शरीर का रोज़ा होता है, जिसका मक़सद ये भी है कि, इंसान बुराई से जुड़ा कोई भी काम ये सोचकर ना करे कि, वो रोज़े में है और यही अल्लाह अपने बंदे (भक्त) से चाहता है। वैसे तो हर इंसान में कोई ना कोई बुराई होती ही है, ऐसे में सोचिये कि, अगर इंसान रोज़ें की इस बेहतरीन (महान) खूबी से सीखकर अपनी जिंदगी को गुज़ारने वाला बन जाए, तो हालात (स्थितियां) कैसी हों ? इसलिए भी इस्लाम के नज़दीक रमज़ान के इन रोज़ों को हर मुसलमान के लिए फर्ज़ (ज़रूरी) बताया गया है।
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रमज़ान का मक़सद? (उद्देश्य)
कुल मिलाकर रमज़ान का मक़सद (उद्देश्य) इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई के रास्ते पर लाना है। इसका मक़सद एक दूसरे से मोहब्बत (प्रेम) भाइचारा और खुशियां बाटना (आदान-प्रदान करना) है। रमज़ान का का मक़सद सिर्फ यही नहीं होता कि, एक मुसलमान सिर्फ किसी मुसलमान से ही अपने अच्छे अख़लाक़ (व्यव्हारिक्ता) रखे बल्कि, मुसलमान पर ये भी फर्ज (ज़रूरी) है कि, वो किसी और भी मज़हब के मानने वालों से भी मोहब्बत (प्रेम), इज़्ज़त (सम्मान), अच्छा अख़लाक़ रखे, ताकि दुनिया के हर इंसान का एक दूसरे से भाईचारा बना रहे। इसलिए भी मुसलमान पर रमज़ान के रोज़ों को फर्ज किया गया है।