भोपाल

एक किस्सा लोकसभा का: जानते हुए भी हार गए थे अटल, कहा था- मेरी एक हार में इतिहास छुपा है

एक किस्सा लोकसभा का: जानते हुए भी हार गए थे अटल, कहा था- मेरी एक हार में इतिहास छुपा है

भोपालMar 11, 2019 / 03:15 pm

Pawan Tiwari

एक किस्सा लोकसभा का: जानते हुए भी हार गए थे अटल, कहा था- मेरी एक हार में इतिहास छुपा है

भोपाल. मुखालिफत यहां का मिजाज़ है। मुखालिफत एक उर्दू शब्द है। हिन्दी में इसका मतलब होता है विरोध। सियासत में अक्सर एक नेता दूसरे नेता का विरोध करते हैं पर यहां की तासीर है बगावत। इसलिए तो एक बेटा अपनी मां के खिलाफ हो जाता है। आपने टीवी में महाभारत तो कई बार देखी होगी। उस दौर में हुई महाभारत का एक नियम था शाम को शंखनाद के बाद युद्ध थम जाता था। पर ये तो सियासत है यहां शंखनाद के बाद ही असली दांव खेला जाता है। 1984 में भी शाम के वक्त एक दांव खेला गया था। रणनीति दिल्ली में बनी थी और हलचल मध्यप्रदेश की सियासत में मची थी। बेटा- मां से बगावत कर चुका था। भाजपा की बैचनी बढ़ गई थी, दिग्गज नेता सकते में थे। मां-बेटे के बीच एक फैसले ने दीवार खड़ी कर दी थी। यह किस्सा है ग्वालियर संसदीय सीट का।
 


बगावत के कई किस्से
इस संसदीय क्षेत्र में मां-बेटे की बगावत के आज भी कई किस्से सुनाए जाते हैं। ये बगावत थी माधवराव सिंधिया और राजमाता विजयाराजे सिंधिया की। सीट थी ग्वालियर। इंदिरा गांधी की 1984 में गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। देश में लोकसभा चुनाव होते हैं। लेकिन इस बार देश की नजर थी ग्वालियर और तब की इलाहाबाद सीट के परिणाम की। भाजपा 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ मैदान में उतरती है। ग्वालियर लोकसभा सीट से भाजपा के उम्मीदवार थे अटल बिहारी वाजपेयी। दिल्ली में एक बैठक होती है। ये बैठक थी कांग्रेस की। शुरुआत में हमने महाभारत की बात की थी। इस बैठक में भी एक अर्जुन था। बस फर्क इतना था कि महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान दिया था। पर इस बैठक में राजीव का सारथी बना था मध्यप्रदेश का अर्जुन। मैं बात कर रहा हूं अर्जुन सिंह की। इस बैठक में राजीव के साथ अर्जुन सिंह भी शामिल थे और उस वक्त अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस का एक धड़ा राजीव से नाराज था। नाराज धड़े का नेतृत्व कर रहे थे। यूपी के कद्दावर नेता हेमवंती नंदन बहुगुणा। अर्जुन सिंह राजीव को एक सुझाव देते हैं। राजीव को यह सुझाव पसंद आता है। बैठक खत्म होती है और इंतजार करने को कहा जाता है। इंतजार खत्म होता है नामांकन भरने की आखिरी तारीख को। अचानक माधवराव सिंधिया अपना पर्चा कांग्रेस के उम्मीदावर के रूप में गुना छोड़कर ग्वालियर से भरते हैं। भाजपा में खलबली मचती है। मां-बेटे की बगावत अब खुले तौर पर जनता के बीच आ चुकी थी क्योंकि मां विजयाराजे सिंधिया भाजपा की संस्थापक सदस्य थीं। अटल के खिलाफ माधवराव सिंधिया के चुनाव लड़ने से मां विजयाराजे दुविधा में थीं।

अर्जुन सिंह ने दी थी सलाह
अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी को सलाह दी कि माधवराव सिंधिया को गुना के बजाय ग्वालियर से मैदान में उतारा जाये और रणनीति के तहत पर्चा भरने का वक्त नामांकन के आख़िरी दिन तय किया जाए। माधवराव के ग्वालियर से चुनाव लड़ने की बात से भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी सीट राजस्थान की कोटा और भिंड से पर्चा भरना चाहते थे। भिंड से राजमाता की बेटी वसुंधरा राजे मैदान में थी तो कोटा मानांकन करने के लिए वो पहुंच नहीं सकते थे। मां विजयराजे सिंधिया भी अटल के समर्थन में जनसभा करने उतरीं। पर ना बेटे का विरोध कर सकीं और ना ही अटल को जिताने की अपील। राजमाता ने जनता से चुनावी सभा में कहा था- एक ओर पूत है और दूसरी ओर सपूत। अब फैसला आपके हाथ में हैं। परिणाम आए तो अटल विहारी वाजपेयी बड़े अंतर से चुनाव हार चुके थे।
 

अटल ग्वालियर से लड़ना चाहते थे चुनाव
अटल के ग्वालियर से चुनाव लड़ने की एक और भी कहानी है। कहते हैं कि अटल खुद माधव राव सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहते थे। वजह थीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया। अटल विहारी वाजपेयी ग्वालियर से पर्चा भरने के लिए एक दिन पहले ग्वालियर पहुंच गए थे। अटल बिहारी नारायण कृष्ण शेजवलकर के घर पर रुकते हैं। सुबह वहां लालकृष्ण आडवाणी पहुंचते हैं। आडवाणी कहते हैं आपको दो सीटों से चुनाव लड़ना होगा ग्वालियर औऱ कोटा। अटल कोटा से चुनाव लड़ने से इंकार करते हैं। कहा- चुनाव लड़ूंगा तो सिर्फ़ ग्वालियर से। वाजपेयी ने कहा था मैंने माधवराव जी को बता दिया है कि मैं ग्वालियर से चुनाव लड़ूंगा उन्होंने मुझे शुभकामनाएं भी दी हैं और वे गुना से चुनाव लड़ेंगे पर आडवाणी ने कहा था। राजीव गांधी के कहने पर वह सीट बदल सकते हैं। वाजपेयी ने कहा था तब तो मैं सिर्फ़ ग्वालियर से ही चुनाव लड़ूंगा। अगर मैं कोटा से चुनाव लड़ा तो माधवराव सिंधिया के खिलाफ राजमाता ग्वालियर से चुनाव लड़ेगी और मैं नहीं चाहता कि किसी भी कीमत पर मां-बेटे का मनमुटाव सड़क पर आए।
 

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मेरी हार में इतिहास छिपा है
2005 में जब अटल बिहारी ग्वालियर आए थे तब उन्होंने साहित्य सभा में खुद कहा था कि ग्वालियर में मेरी एक हार पर इतिहास छिपा हुआ है। 1967 में विजयराजे सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दिया था। उनके बेटे माधवराव सिंधिया पहली बार सांसद जनसंघ के टिकट से बने थे। वही जनसंघ जो 1980 में भाजपा बन चुकी थी पर राजमाता के कांग्रेस से भाजपा में और माधवराव सिंधिया के जनसंघ से भाजपा में जाने की एक अलग ही किस्सा है। मां-बेटे की बगावत के बीच बड़ी भूमिका निभाई थी पिता और बेटी ने। वो पिता थे पंडित जवाहर लाल नेहरू और बेटी थीं इंदिरा गांधी। जिस तरह से विजयाराजे सिंधिया को नेहरू समझाने में कामयाब रहे थे और राजमाता कांग्रेस में शामिल हो गई थीं उसी तरह से इंदिरा गांधी माधवराव सिंधिया को समझाने में कामयाब रहीं और वो कांग्रेस में शामिल हो गए थे। राजमाता की सियासत कांग्रेस से शुरू हुई थी 1962 का लोकसभा चुनाव राजमाता ने ग्वालियर संसदीय सीट से जीता था। आजादी के बाद महाराज जीवाजीराव ने रियासत को खुद ही भारत में मिला लिया था। उन्होंने सारा काम-काज महारानी विजयाराजे को सौंप दिया था। नेहरू ने 1957 में जीवाजी से मिलने के बाद उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का न्यौता दिया। जीवाजी राव इसके लिए राजी नहीं हुए। उनका झुकाव कांग्रेस से ज्यादा हिंदू महासभा की ओर था। इस मामले में भी महारानी विजयाराजे जाकर नेहरू से मिलीं और जीवाजीराव के राजनीति में आने से इंकार कर दिया। कांग्रेस ने अपना एक और पासा फेंका कहा- महाराज ना सही महारनी ही कांग्रेस की सीट से चुनाव लड़ ले। यह लोकतंत्र में राजतंत्र की शुरुआत थी और उसके बाद महारानी एक कुशल राजनीतिज्ञ बनकर उभरीं।
ग्वालियर लोकसभा सीट 1952 में आस्तित्व में आई
ग्वालियर लोकसभा सीट 1952 में आस्तित्व में आई। इस सीट में पार्टी से ज्यादा सिंधिया राजघराने का दबदबा रहा है। कहा जाता है कि इस सीट में जीत उसी नेता की होती थी जिसको जयविलास पैलेस का समर्थन होता था। शुरुआती दौर में यहां हिन्दू महासभा का प्रभाव रहा था। उसके बाद जनसंघ का लेकिन 1984 से 1996 तक यहां से कांग्रेस के माधवराव सिंधिया लगातार चुनाव जीतते रहे। कांग्रेस यहां से आठ बार चुनाव जीती तो भाजपा ने चार बार जीत दर्ज की। बीते तीन लोकसभा चुनावों से भाजपा यहां लगातार जीत रही है। वहीं, दो-दो बार भारतीय जनसंघ और हिन्दू महासभा ने जीत दर्ज की तो एक-एक बार भारतीय लोकदल और जनता पार्टी ने जीत दर्ज की। भाजपा को यहां पहली बार 1999 में पहली जीत मिली। भाजपा के जयभान सिंह पवैया पहली बार ग्वालियर सीट से 1999 में चुनाव जीते। अब धीरे-धीरे यह सीट कांग्रेस से भाजपा के गढ़ में बदलती जा रही है। ग्वालियर लोकसभा सीट के अंतर्गत आठ विधानसभी सीटें आती हैं। इनमें ग्वालियर ग्रामीण, ग्वालियर, ग्वालियर पूर्व, ग्वालियर दक्षिण, भितरवार, डबरा, करेरा और पोहरी शामिल है।
 

ग्वालियर से कब कौन जीता
1952 में विष्णु घनश्यामदास देशपांडे
1957 में सूरज प्रसाद
1962 में राजमाता विजयराजे सिंधिया
1997 में राम अवतार शर्मा
1971 में अटल बिहारी वाजपेयी
1977 से 84 में नारायण कृष्ण राव शेजवलकर
(दो बार)
1984 से 98 तक माधवराव सिंधिया
(लगातार पांच बार माधवराव सिंधिया यहां से चुनाव जीते)
1999 में जयभान सिंह पवैया
2014 में रामसेवक सिंह
2007 में यशोधरा राजे सिंधिया
2009 में यशोधरा राजे सिंधिया
2014 में नरेन्द्र सिंह तोमर
 

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ग्वालियर का जातिगत समीकरण
2011 की जनगणना के मुताबिक ग्वालियर की जनसंख्या 27 लाख 30 हजार 4सौ 72 है। यहां की 51.04 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र और 48.96 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है। ग्वालियर में 19.59 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं और 5.5 फीसदी लोग अनुसूचित जनजाति के हैं। मौजूदा समय में यहां से भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर सांसद हैं। वो मोदी कैबिनेट में मंत्री भी हैं। नरेंद्र सिंह तोमर को उनके निर्वाचन क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए 17.50 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे। इसमें से उन्होंने 75.44 फीसदी खर्च किया। उनका करीब 4.68 करोड़ रुपये का फंड बिना खर्च किए रह गया। 2014 के चुनाव में नरेंद्र सिंह तोमर ने कांग्रेस के अशोक सिंह को शिकस्त दी थी। इस चुनाव में तोमर को 44.69 फीसदी वोट मिले थे तो वहीं अशोक सिंह को 41.69 फीसदी वोट मिले थे। दोनों के बीच हार जीत का अंतर 29699 वोटों का था। बसपा 6.88 फीसदी वोटों के साथ तीसरे स्थान पर थी। 2019 में एक बार फिर से यहां चुनाव होना है चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल तैयार हैं।
ग्वालियर का दूसरा पहलू भी
ग्वालियर के दूसरे पहलू की बात करें तो..यहां प्रकृति का अनपुम देन है…घूमने के लिए ग्वालियर का किला है तो यहां झांसी के रानी और संगीत सम्राट तानसेन की समाधि है..ग्वालियर और इसका किला उत्तर भारत के प्राचीन शहरों के केन्द्र रहा है। यह शहर गुर्जर प्रतिहार, तोमर तथा कछवाहा राजवंशों की राजधानी भी रहा है। संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर की एक अलग पहचान है। ग्वालियर घराना आज भी राजनीत का अहम केन्द्र है तो यहां से कई महान संगीतज्ञ निकले हैं। शिक्षा के लिए यहां विश्व प्रसिद्ध सिंधिया स्कूल है तो यहां के मंदिर कला का अनुपम उदाहरण है।

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