दूसरा गो-आधारित इस पद्धति में गाय-भैंस पालन भी अब आसान नहीं रहा, क्योंकि बिना पशुधन के ऑर्गेनिक खेती की परिकल्पना मुश्किल है। ऐसे में किसानों को सीएम की एक वर्ष पहले की गई उस घोषणा का इंतजार है, जिसमें उन्होंने चारे-भूसे के लिए 900 रुपए प्रति पशु गोवंश देने की बात कही थी। इसी तरह से पीढ़ी के अंतर यानी जेनेरेशन गैप के चलते कई किसानों को जैविक खेती की प्रक्रिया ही नहीं पता। इसलिए उन्हें जोखिम नजर आता है।
दूसरा, सरकार ने जैविक खेती के लिए जो नीतियां बनाई हैं, उनकी जानकारी और लाभ किसानों तक नहीं पहुंच रहा। इसी वजह से किसान इस ओर ध्यान नहीं देते। प्रगतिशील किसान कहते हैं कि इस पद्धति से खेती के नामकरण ने भी भटकाव पैदा किया है। अब भारतीय किसान संघ ने एकरूपता के लिए प्रयास किया है। विभिन्न प्रदेशों में जैविक खेती करने वाले किसानों के साथ मंथन में तय हुआ है कि इसे देश में अब गो आधारित जैविक कृषि कहा जाएगा।
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केस 01 : धीरे-धीरे बढ़ा रहे रकबा
रासायनिक से ऑर्गेनिक खेती की तरफ कदम बढ़ा रहे आगर-मालवा जिले के सीताराम राठौर बताते हैं कि वे भारतीय किसान संघ से वर्ष 2010 में जुड़े थे। उसी समय किसान संघ ने उज्जैन में अधिवेशन किया था। वहां जैविक खेती के विषय में गहन चर्चा हुई। इसके बाद राठौर ने शुरुआत की। अपनी पूरी 2.5 हेक्टेयर (15 बीघा) जमीन के बजाय एक बीघा पर जैविक पद्धति से गेहूं लगाया। वे 2010 के बाद से ही ऑर्गेनिक खेती करते हुए रकबा बढ़ा रहे हैं। वे इसे घर में इस्तेमाल करते हैं और ज्यादा हो तो परिचितों को दे देते हैं।
समस्या-1
जैविक खेती पूरी तरह से पशुधन पर निर्भर है। दूध उत्पादन हो जाता है, लेकिन इसका भाव नहीं मिलता। ऐसे में गाय-भैंस पालना किसान के लिए महंगा है। बाजार से मिलावटी दूध हटा दिया जाए और दुग्ध उत्पादक किसानों को सही मूल्य मिले तो वह अधिक से अधिक संख्या में पशु पालेगा। इससे ही उसकी जैविक खेती की राह आसान हो जाएगी।
सीताराम राठौर ने कहा, पूरी तरह खेती पर निर्भर किसान सोच-समझकर जैविक खेती करते हैं, क्योंकि उत्पादन की सही मात्रा मिलने में 3-4 वर्ष लगते हैं। इतना धैर्य रखना और लागत लगाना आसान नहीं होता। इसलिए किसान रासायनिक खेती ही करते हैं। सरकार जैविक खेती करने वालों को आर्थिक पैकेज दे तो किसान हिम्मत जुटा पाएंगे।
बिहारी साहू बताते हैं कि 2016 से अभी तक वे 15 हजार किसानों को प्रशिक्षण दे चुके हैं, जिनमें से करीब 2200 किसानों ने जैविक खेती की तरफ कदम बढ़ाए हंै। वे मानते हैं कि किसान जानकारी के अभाव में जैविक खेती नहीं करते और शुरू भी करते हैं तो बहकावे या लागत ज्यादा देखकर बीच में ही छोड़ देते हैं।
खेती में पेस्टीसाइड किसी न किसी रूप में ऐसे कैमिकल हैं, जो मानव शरीर के लिए घातक होते हैं। किसानों की अभी तो प्राथमिकता होती है कि ज्यादा से ज्यादा और दिखने में आकर्षक उत्पादन हो… इसके लिए वे रासायनिक खेती को प्राथमिकता देते हैं। इससे उबरने के लिए सरकार को नीति स्पष्ट और व्यावहारिक बनानी होगी, जिसमें उन्हें जैविक खेती के लिए प्रोत्साहन भी जरूरी है।
– डॉ. तृप्ति जैन, आयुर्वेद आहार-विहार विशेषज्ञ