राजधानी भोपाल कभी जुगनुओं का घर कही जाती थी। चार दशक पहले तक बड़ा और छोटा तालाब रात में जुगनुओं से टिमटिमाता था। अब ये नहीं दिखते। वेपर लैम्प, एलईडी लाइट्स और बढ़ते शहरीकरण ने प्राकृतिक लालटेन के प्रकाश को तकरीबन बुझा दिया। कीटों पर अध्ययन कर रहे प्राणी विज्ञान शास्त्री संजय तेलंग बताते हैं कि जुगनू बदलते पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होते हैं। ये केवल स्वस्थ वातावरण में ही जीवित रह सकते हैं।
जुगनू अंधेरे में रहने वाला कीट है, लेकिन जहां रोशनी होती है वहां इनके प्रजनन में दिक्कत आती है। नर कीट कृत्रिम रोशनी में मादा को आकर्षित नहीं कर पाता। बड़े तालाब के आसपास कई जगह दूधिया रोशनी और सोडियम लैंप लग गए हैं। इससे ये खत्म हो रहे हैं। इनका प्राकृतिक रहवास खत्म होना भी एक कारण है।
ये भी पढ़ें : Malti Joshi death: पद्मश्री कथाकार और मालवा की ‘मीरा’ मालती जोशी का निधन, इंदौर से था खास लगाव
मादा को रिझाने के लिए टिमटिमाते हैं
नर जुगनू मादाओं को रिझाने और दूसरे शिकारियों को अपने से दूर रखने के लिए टिमटिमाते हैं। जुगनुओं की हर चमक का पैटर्न साथी को तलाशने का प्रकाशीय संकेत होता है। जुगनुओं की तरह ही उनके अंडे भी चमकते हैं। मादा के पंख नहीं होते। वह एक ही जगह पर चमकती हैं। पर्यावरणविद सुभाष सी. पांडे बताते हैं, शहरीकरण से हरियाली खत्म हुई है। तालाबों के किनारे पक्के निर्माण हुए। इससे जुगनू का रहवास खत्म हुआ। ये जहरीले रसायनों से मुक्त पानी के पास पाए जाते हैं। पराग या मकरंद के सहारे जिंदा रहते हैं। इनके जीवन का बड़ा हिस्सा लार्वा के रूप में जमीन या जमीन के नीचे या फिर पानी में बीतता है। अभी भोपाल का बड़ा तालाब किनारे बोरवन-रामसर साइट पर रात में जुगनू दिखते हैं।