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भोपाल

एक किस्सा लोकसभा का: हिन्दू महासभा से विचलित थे नेहरू, इस सीट से शुरू हुआ था नया अध्याय

एक किस्सा लोकसभा का: हिन्दू महासभा से विचलित थे नेहरू, इस सीट से शुरू हुआ था नया अध्याय

भोपालMar 11, 2019 / 03:15 pm

Pawan Tiwari

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एक किस्सा लोकसभा का: हिन्दू महासभा के बढ़ते प्रभाव से विचलित थे नेहरू, इस सीट से शुरू हुआ था नया अध्याय

भोपाल. देश आजाद हो चुका था। राजशाही खत्म हो गई थी और लोकतंत्र स्थापित हो चुका था। 1957 में लोकसभा चुनाव के लिए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रचार के लिए मध्यप्रदेश पहुंचे। लोकतंत्र के दौर में उन्होंने यहां एक राजघराने की राजशाही देखी। राजवाड़ा था ग्वालियर का सिंधिया राजघराना। तब ग्वालियर रियासत में 8 लोकसभा और 60 विधानसभा सीटें थी। सिंधिया राजघराने के प्रभाव से नेहरू विचलित थे। कारण था हिन्दू महासभा का इस क्षेत्र में बढ़ता प्रभाव। गोविंद वल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री ने एक ऑफर दिया और यहीं से शुरू हुआ था सिंधिया परिवार के राजनीति में प्रवेश की। यहां से राजनीति के एक अध्याय की शुरुआत होती है। मां-बेटे की बगावत की नींव पड़ती है और ये सीट कांग्रेस का अभेद्द गढ़ बन जाती है। हम बात कर रहे हैं गुना-शिवपुरी संसदीय सीट की।

भाजपा-कांग्रेस में सिंधिया परिवार का दबदबा
आज़ाद भारत में सिंधिया परिवार का राजनीतिक संबंध कांग्रेस और बीजेपी दोनों से रहा। 1950 के दशक में ग्वालियर में हिन्दू महासभा मज़बूत थी। हिन्दू महासभा को महाराजा जीवाजीराव का संरक्षण था। इसी कारण से यहां कांग्रेस कमज़ोर थी। 1957 में लोकसभा के चुनाव होते हैं। प्रचार करने के लिए नेहरू मध्यप्रदेश आते हैं लेकिन ग्वालियर रियासत में हिन्दू। महासभा के बढ़ते कद को रोकने के लिए महाराज जीवाजी राव सिंधिया पर दबाव ड़ाला जाता है। महाराज पर कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़ने का दबाव बढ़ने लगता है। तब सामने आती हैं महारानी विजयाराजे सिंधिया। पति को चुनाव नहीं लड़ने का संदेश लेकर नेहरू से मिलने के लिए दिल्ली पहुंचती हैं। बातचीत के लिए नेहरू गोविंद वल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री को भेजते हैं। महारानी जीवाजी राव के चुनाव नहीं लड़ने का संदेश सुनाती हैं। कांग्रेस महारानी को दूसरा ऑफर देती है। ऑफर था महाराज की जगह आप खुद चुनाव मैदान में आइए। महारानी इंकार नहीं कर पाती हैं और कांग्रेस के टिकट पर 1957 में गुना-शिवपुरी संसदीय सीट से चुनाव मैदान में उतरती हैं। विजयाराजे सिंधिया ने हिन्दू महासभा के प्रत्याशी को चुनाव हराया और पहली बार संसद पहुंची। लेकिन वो बहुत दिनों तक कांग्रेस के साथ नहीं रह सकीं।

दो कारणों से छोड़ी कांग्रेस
डीपी मिश्रा जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे उस समय ग्वालियर में छात्रों की समस्या को लेकर छात्र आंदोलन हुआ। जिसमें पुलिस ने छात्रों पर बर्बरतापूर्वक गोलियां चलाई। दो छात्रों की मौत हे गई। राजमाता छात्रों के साथ थीं और डीपी मिश्रा उस छात्र आंदोलन को रौंदना चाहते थे। इस घटना से तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं से राजमाता नाराज हो गईं थी। दूसरी घटना थी सरगुजा महाराज के घर पुलिस का कार्रवाई। राजमाता विजयाराजे सिंधिया इन दिनों भारत के सभी राजघरानों का नेतृत्व कर रहीं थी। इस दौरान सरगुजा महाराज के घर में पुलिस कार्रवाई करने पहुंचती है जिसका राजमाता ने खुला विरोध किया। ये विरोध 1967 में बगावत में बदल चुकी थी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पंचमढ़ी में युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का उद्घाटन इंदिरा गांधी ने किया था। राजमाता विजयाराजे सिंधिया इसी सम्मेलन में मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से मिलने पहुंची थीं। राजमाता इस मुलाक़ात में चुनाव और टिकट के बंटवारे को लेकर बात करने आई थीं। डीपी मिश्रा ने विजयाराजे को 10 से 15 मिनट तक इंतज़ार करा दिया। इंतजार की बात से राजमाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस के खिलाफ हो गई और कांग्रेस छोड़कर जनसंघ में शामिल हो गईं।
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जनसंघ से बेटे को लड़ाया चुनाव
1967 का चुनाव राजमाता ने स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के रूप में गुना-शिवपुरी से लड़ा और जीत दर्ज की। लेकिन 1971 के चुनाव में राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपने बेटे माधवराव सिंधिया को जनसंघ के टिकट पर गुना से चुनाव लड़ाया। माधवराव सिंधिया जीत कर पहली बार संसद पहुंचे। कहा- जाता है माधवराव सिंधिया को हिन्दुत्व की राजनीति रास नहीं आई और 1977 का चुनाव निर्दलीय लड़ा। माधवराव सिंधिया का कांग्रेस ने समर्थन किया और वहां से अपना कोई उम्मीदवार नहीं उतारा। माधवराव सिंधिया के इस फैसले के बाद से राजमाता और माधव राव सिंधिया के बीच दूरी बढ़ने लगी थी। इंदिरा गांधी ने 1980 के लोकसभा चुनाव में माधवराव सिंधिया को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। राजमाता अब माधवराव से नाराज हो चुकी थी। राजमाता की नाराजगी के बाद भी माधवराव सिंधिया नहीं माने और कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा। लेकिन 1984 में भाजपा को रोकने के लिए राजीव गांधी और अर्जुन सिंह ने सियासी रणनीति चली। इस रणनीति में माधवराव सिंधिया गुना छोड़कर अटलबिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ने ग्वालियर पहुंचे।
राजमाता की वापसी
1989 के चुनावों में राजमाता सिंधिया फिर से भाजपा के सीट पर चुनाव लड़ी। 20 साल के लंबे अंतराल के बाद गुना आई राजमाता को यहां की जनता ने हाथों हाथ लिया। उन्होंने कांग्रेस के महेन्द्र सिंह को 1 लाख 46 हजार मतों से हराया। इसके बाद तो यह सीट राजमाता सिंधिया की ही होकर रह गई। 1991 तथा 1996 में पुन: विजयाराजे सिंधिया यहां से सांसद निर्वाचित हुईं। 1998 में उन्होंने देवेन्द्र सिंह रघुवंशी को चुनाव हराया। कहा जाता है कि यह चुनाव ऐतिहासिक था। विजयाराजे सिंधिया बहुत बीमार थीं और अस्पताल में भर्ती थीं। बस नामांकन की औपचारिकता ही उन्होंने पूरी की। चुनाव प्रचार के लिए 1 मिनट का समय भी नहीं निकाला। वोटिंग के दो दिन पहले अफवाह उड़ाई गई कि राजमाता नहीं रहीं। जवाब में हर चौराहे पर पोस्टर चिपके मिले जिसमें विजयाराजे सिंधिया के फोटो के नीचे लिखा था ‘मैं अभी जिंदा हूं’ और भाजपा औऱ राजमाता की यहां से जीत हुई थी। 1998 में ग्वालियर लोकसभा सीट पर माधवराव सिंधिया के लिए हार की स्थिति बन गई। भाजपा के जयभान सिंह पवैया ने माधवराव को कड़ी टक्कर दी। 1999 में फिर से चुनाव हुए इस बार माधवराव सिंधिया ग्वालियर छोड़कर गुना-शिवपुरी सीट पर चुनाव लड़े।
सियासत में तीसरी पीढ़ी
2001 में हुई एक हवाई दुर्घटना में माधवराव सिंधिया का असामायिक निधन हो गया। उसके बाद तीसरी पीढ़ी के रूप में उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 2004 के चुनावों से सक्रिय राजनीति में पदार्पण किया। भाजपा ने इस बार धुर सिंधिया विरोधी कांग्रेसी नेता हरिबल्लभ शुक्ला को मैदान में उतारा लेकिन इस बार भी जीत सिंधिया की ही हुई। ज्योतिरादित्य तब से यहां पर लगातार जीत दर्ज कर रहे हैं। गुना-शिवपुरी लोकसभी सीट 1952 में वजूद में आई। कांग्रेस को यहां पर 9 बार जीत मिली है। वहीं बीजेपी को 4 बार और 1 बार जनसंघ को जीत मिली है। इस सीट पर एक ही परिवार के तीन पीढ़ियों का राज रहा है। बीजेपी इस सीट पर तभी जीत हासिल की है जब विजयाराजे सिंधिया उसके टिकट पर चुनाव लड़ीं। विजयाराजे सिंधिया के बाद बीजेपी को यहां पर कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं मिला जो माधवराव सिंधिया और ज्योतिरादित्य सिंधिया को हरा सके। गुना लोकसभा सीट के अंतर्गत विधानसभा की 8 सीटें आती हैं। यहां पर शिवपुरी, बमोरी, चंदेरी, पिछोर, गुना, मुंगावली, कोलारस, अशोक नगर विधानसभा सीटें हैं।
कब कौन यहां से बना सांसद
1952- हिन्दू महासभा के विष्णु घनश्याम दास पांडे
1957- कांग्रेस से विजया राजे सिंधिया
1962 में कांग्रेस के वीसी परासर
1967 सव्तंत्र पार्टी से विजयाराजे सिंधिया
1971 में जनसंघ से माधवराव सिंधिया
1977 में निर्दलीय उम्मीदवार माधवराव सिंधिया
1980 में कांग्रेस से माधवराव सिंधिया
1984 में कांग्रेस के महेन्द्र सिंह
1989-1998 में भाजपा से विजयाराजे सिंधिया
(लगातार चार बार)
1999 में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया
2002-2014 में कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया
(लगातार चार बार)

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गुना लोकसभा के सियासी समीकरण
गुना शहर मध्य प्रदेश के उत्तर में स्थित है। गुना में मुख्यतः हिन्दू, मुस्लिम तथा जैन समुदाय के लोग रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक गुना की जनसंख्या 24 लाख 93 हजार 675 थी। यहां की 76.66 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र और 23.34 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्र में रहती है। गुना में 18.11 फीसदी लोग अनुसूचित जाति और 13.94 फीसदी लोग अनुसूचित जनजाति के हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे माधवराव सिंधिया के बेटे हैं। .48 साल के ज्योतिरादित्य सिंधिया मनमोहन सिंह सरकार में सात साल तक सूचना एवं प्रौद्योगिकी, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के मंत्री रह चुके हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की गिनती कांग्रेस के असरदार युवा चेहरों में होती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके निर्वाचन क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए 25 करोड़ रुपये आवंटित हुए थे जो कि ब्याज की रकम मिलाकर 25.35 करोड़ हो गई थी। 81.53 फीसदी खर्च किया। संसद में ज्योतिरादित्य सिंधिया की उपस्थिति 76 फीसदी रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस दौरान 48 बहस में हिस्सा लिया। संसद में 825 सवाल भी पूछे। उन्होंने RTI,वायु प्रदूषण कम करने, सौभाग्य योजना, एससी-एसटी के खिलाफ अपराध, भारतमाला परियोजना को लेकर संसद में सवाल किया। सिंधिया इस समय कांग्रेस के महासचिव हैं।

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