भोपाल. दीपावली के पर्व के दौरान धर्म और संस्कृति से जुड़े अंतिम व्यक्ति के घर में दिया जल सके, इसकी सीख बार-बार हम खुद अपने आप और नई पीढ़ी को देते हैं। लेकिन दीपों के उत्सव पर जो हाथ इन दियों की मिट्टी का थापकर हर एक दिए को चाक पर आकार दे रहे हैं, उन तक वह पैसा ही नहीं पहुंच रहा है। शहर में दिए बनाने वाले परिवारों की न केवल संख्या कम होती जा रही है बल्कि पिछले एक दशक में इनके दियों की कीमत भी मात्र 10 से 15 पैसे ही बढ़ी है। हालात यह है कि मंहगाई के इस दौर में तमाम मेहनत के बाद भी कुम्हारों को एक दिए पर 10 पैसे की कमाई तक नहीं हो पा रही है।
कीमत नहीं बढ़ी, लागत बढ़ती जा रही कोलार की पीसी नगर बस्ती में दिए बनाने का काम करने वाले सोनू प्रजापति बताते हैं, 2010 के आसपास 1000 दियों के लिए 300 से 350 रुपए के एक हजार रुपए मिलते थे। अब भी यह 400 से 450 रुपए ही मिल रही है। जबकि इस बीच दियों को पकाने के लिए लगने वाले कंडों की कीमत कई गुना बढ़ गई है। एक बार दिए पकाने में 100 से 150 कंडे लग जाते हैं। इस तरह जो दिए हमें सामान और मजदूरी जोड़कर ही 300-350 रुपए के एक हजार पड़ते हैं उन्हें मात्र 400 रुपए हजार में बेचना पड़ता है। इस तरह एक दिए के लिए बमुश्किल 10 पैसे भी नहीं मिल पा रहा है।
जबलपुर-दमोह से आ रही गाडिय़ां, बिचौलिए गिराते रेट कोलार के ही बबलू कुम्हार बताते हैं, हम दिए तो बनाते हैं, लेकिन सभी खुद नहीं बेच सकते। जबकि बिचौलिए बड़ी संख्या में गाडिय़ां भरकर दिए ले आते हैं। उनके सस्ते दियों के चलते हमें भी दाम नहीं मिल पाते हैं। बुंदेलखंड सहित कई अंदरुनी गांवों में पूरे के पूरे परिवार वहीं मिट्टी खोदकर आसपास से गोबर के कंडे थापकर बच्चों के साथ दिए आदि बनाते रहते हैं, जिन पर दबाव डालकर बिचौलिए हजारों की संख्या में दिए ले आते हैं। आजकल रोजाना जबलपुर, दमोह से गाडिय़ों में भरकर दिए आ रहे हैं। इसके चलते न वहां न ही यहां कहीं के कुम्हारो ंको दिए के रेट नहीं मिल पा रहे।